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-अध्यात्म की यात्रा
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लिए बहुत बड़ी चुनौती है । यह उनके लिए भी एक चुनौती है जो धर्म के घुरंधर हैं, धर्म की घुरा को वहन करने वाले हैं, धर्म रथ के सारथी हैं, धर्मरथ को आगे बढ़ाने का दायित्व ओढ़े हुए हैं । या तो वे इस चुनौती को
लें या फिर बड़ी-बड़ी बातें बनाना छोड़ दें । वे रूपान्तरण की प्रक्रिया प्रस्तुत करें, लोगों को सक्रिय अभ्यास कराएं उनमें यह विश्वास पैदा करें कि धर्म रूपान्तरण की वैज्ञानिक प्रक्रिया है । इसके पास वह सब कुछ है जो आदमी को आनन्दमय, सुखमय और शांतिमय बना सके । यदि ऐसा हो पाए - तो चुनौती का सटीक उत्तर मिल जाएगा ।
मुझे स्मरण है । तीस वर्ष पहले की बात है । एक दिन आचार्यश्री ने कहा - "हमारे पास इतने लोग आते हैं । सदा भीड़ लगी रहती है । दूरदूर से वे आते हैं। बड़ी श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं, भावना रखते हैं और हमें तब कुछ मानकर चलते हैं । किन्तु हम इन्हें देते क्या हैं, यदि कुछ भी नहीं देते हैं तो क्या हम अपने कर्त्तव्य का पूरा पालन करते हैं ? उनकी इतनी भक्ति और श्रद्धा लेते हैं और वापस यदि कुछ भी नहीं देते हैं तो यह उनकी भक्ति और श्रद्धा का शोषण है, अन्याय है ।"
यह चिन्तन गहरे में गया । इसके परिणामस्वरूप अणुव्रत आन्दोलन ने जन्म लिया । इसके परिणामस्वरूप अध्यात्म की यात्रा ने जन्म लिया । यह सोचा गया कि जो भी श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं, उनकी श्रद्धा का प्रतिफल उन्हें मिलना चाहिए | उनका जीवन बदलना चाहिए। उनके जीवन की यात्रा बदलनी चाहिए ।
मूल प्रश्न है- जीवन कैसे बदले ? इसके समाधान में कहा गया कि अध्यात्म की यात्रा पर चलने से जीवन बदल जाता है | बदलने का सबसे बड़ा उपाय है— आत्मा को आत्मा के द्वारा देखना । जब तक भीतर में नहीं देखा जाता तब तक बदलाव नहीं होता, रूपान्तरण नहीं होता ।
इस प्रसंग में मैं शरीरशास्त्रीय चर्चा करना चाहता हूं । डा० कॉप (KAPP) ने एक पुस्तक लिखी है । उसका नाम है - 'ग्लैण्ड्स: दि इन्वि - 'जिबल गारजियन' यह पुस्तक लिखने वाला अध्यात्म-गुरु नहीं है । वह एक शरीरशास्त्री है । वह लिखता है - "हमारे भीतर जो ग्रन्थियां हैं वे क्रोध, कलह, ईर्ष्या, भय, द्वेष आदि के कारण विकृत बनती हैं । जब ये अनिष्ट भावनाएं जागती हैं तब एड्रीनल ग्लैण्ड को अतिरिक्त काम करना पड़ता है । वह थक जाती है, और और ग्रन्थियां भी अतिश्रम से थककर श्लथ हो
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