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किसने कहा मन चंचल है अर्द्धचेतन मन को सक्रिय करना, जगाना। यह शरीरशास्त्रीय भाषा है । आध्यात्मिक भाषा में कहें तो अन्तरात्मा को सक्रिय करना, जागृत करना ।
फिर प्रश्न उठता है कि अर्द्धचेतन मन को हम कैसे जागृत करें ? यह क्या हैं ? इसका स्वरूप क्या है ? इसका कार्य क्या है ?
हमारे शरीर में जितनी भी ग्रन्थियां हैं, ग्लैण्ड्स हैं, वे सब अर्द्धचेतन मन हैं, सब-कोन्शियस् माइंड है । सारा ग्रन्थितंत्र अर्द्धचेतन मन हैं। यह मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है । यह ग्रन्थितंत्र मस्तिष्क से भी अधिक मूल्यवान है । इसे हमें जागृत करना है । यदि इसे सही साधनों के द्वारा जागत करते हैं तो भय से मुक्ति मिलती है। भय से मुक्त होने का अर्थ है सारी बाधाओं से मुक्त होना । शरीरशास्त्र अभी यह बताने में समर्थ नहीं है कि ग्रन्थियों की जागति के सही साधन क्या हैं । अध्यात्म के पास इसका उत्तर है और यह उत्तर प्रयोगात्मक है ।
श्वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा, आत्म-प्रेक्षा, लेश्याओं का ध्यान-ये सब ग्रन्थियों को सक्रिय करने के साधन हैं । हम चैतन्य केन्द्रों (ग्रन्थियों) पर ध्यान करें, वे सक्रिय होंगे। ज्यों-ज्यों हम उन पर अधिक केन्द्रित होंगे, वे और अधिक सक्रिय होते जाएंगे। उनकी सक्रियता से भय समाप्त होगा, आवेग समाप्त होंगे, सब कुछ समाप्त हो जाएगा। एक नया आयाम खुलेगा। नया आनन्द, नई स्फूर्ति, नया उल्लास प्राप्त होगा।
___अभी-अभी एक साधक ने कहा- "मुझे आज ध्यान काल में ऐसा अनुभव हुआ कि पहले कभी नहीं हुआ था। ग्रन्थि-विमोचन का वह अनुभव अपूर्व था।" मैंने कहा-"सच है। इसे 'अपूर्वकरण' कहते हैं। साधना करते-करते दो बार 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है । एक बार जब सम्यग् दृष्टि का पूरा जागरण होता है तब 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है और दूसरी बार जब साधक 'क्षपक श्रेणी' का आरोहण करता है, एक विशिष्ट पथ पर चलना प्रारंभ करता है, ध्यान की विशिष्ट श्रेणी में चढ़ता है, शुक्लच्याते में आरोहण करता है तब 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है। 'अपूर्वकरण' का अर्थ है वह करण जो पहले कभी नहीं हुआ था । अपूर्व वही होता है जो पहले कभी नहीं हुआ हो । पहले हो जाए वह अपूर्व नहीं हो सकता। 'करण' का अर्थ है मनोभाव । ऐसे मनोभाव का जागरण होता है जो पहले कभी नहीं हुआ था।
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