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अध्यात्म की यात्रा
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हुए हैं । यह सारा विकास भय के कारण हुआ है । अणुयुग तक पहुंचाने में भय का हाथ है।
मनुष्य भय के कारण ही हिंसा करता है, दूसरों को मारता है।' मनुष्य भय के कारण ही झूठ बोलता है। वह सोचता है—सच कहने से मुझे ये-ये कठिनाइयां सहन करनी पड़ेंगी। बच्चा सोचता है सच कहने पर पिताजी मारेंगे, मास्टर पीटेंगे। वह झूठ बोलता है और बच निकलता है। व्यापार में जो कुछ अनियमितताएं चलती हैं, वे सब भय के कारण हैं । परिग्रह के संग्रह के पीछे भी भय की शृखला जुड़ी
भय बुराइयों की जड़ है । भय से मुक्त होना दोषों से मुक्त होना है।
इसलिए कहा गया कि आज ऐसे धर्म की जरूरत है जिसके साथ भय जुड़ा हुआ न हो । यह भय भी न हो कि धर्म न करने पर नरक में जाना पड़ेगा । नरक से बचने के लिए यदि कोई धार्मिक बनता है तो वह शुद्ध धार्मिक नहीं बनता । उसको भय सताता रहता है ।
धर्म के क्षेत्र में जैसे भय ने धामिकों में विकृति उत्पन्न की है वैसे ही प्रलोभन ने भी अनेक विकृतियां उत्पन्न की हैं। इन दोनों के कारण धर्म की आत्महत्या ही हो गयी । धर्म करो स्वर्ग मिलेगा, यह मिलेगा, वह मिलेगा। देवांगनाएं फलमाला लिये खड़ी मिलेंगी। स्वागत होगा। अपार संपत्ति और वैभव, नौकर-चाकर, यान-वाहन प्राप्त होगा। मन इन प्रलोभनों में लुब्ध हो गया । धर्म की मूल आत्मा विस्मृत हो गयी और उसे ये भौतिक सुख ही सुख दीखने लग गए।
प्रारंभ में ही माताएं अपने बच्चों में भय का संस्कार जमा देती हैं। अरे, ऐसा करोगे तो नरक में जाओगे, नरक मिलेगा । रोज यह सुनते-सुनते बच्चे में भय के संस्कार पलने लग जाएंगे। वह भीरु बन जाएगा। भय व्यक्ति में हीन भावना पैदा कर देता है। धर्म तो वहां से प्रारंभ होता है जहां भय समाप्त हो जाता है । धर्म का एकमात्र उद्देश्य है-निर्जरा के लिए-निज्जरट्याए । उसका एकमात्र लक्ष्य है—पुराने संस्कारों को क्षीण करना । चैतन्य की उपलब्धि धर्म-साधना से ही संभव है। जो चैतन्य को उपलब्ध कराए, पुराने संस्कारों को मिटाए, भय को नष्ट करे, प्रलोभन से ऊपर उठाए, वही धर्म है, वही अध्यात्म है।
प्रश्न यही है कि रूपान्तरण कैसे हो? इसका एकमात्र उपाय है
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