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किसने कहा मन चंचल है
ध्याता और ध्येय में बहुत बड़ी दूरी है। उसे पाटना बहुत कठिन होता है । जब साधक इस दूरी को पाटने का प्रयत्न करता है तब बीच में अनेक अबरोध आ जाते हैं । ध्यान भंग हो जाता है । एकाग्रता मिट जाती है । मन बाहर की चीजों में उलझ जाता है । ध्येय धुंधला हो जाता है, छूट जाता है । जब ध्येय की दिशा में गमन ही नहीं होता या भटकाव हो जाता है तब ध्येय उपलब्ध कैसे हो सकता है ? जब चरण ध्येय की दिशा में बढ़ते ही नहीं, तब वहां तक पहुंचने की बात ही प्राप्त नहीं होती । ध्येय की दूरी नहीं मिट सकती । दूरी तभी मिट सकती है जब हमारे मन की गति निरंतर ध्येय की दिशा में होती है । जब मन व्यग्रता से शून्य हो जाता है तब ध्येय की निकटता होने लगती है। जब निकटता बढ़ते-बढ़ते हमारे चरण ध्येय तक पहुंच जाते हैं तब मन की जो स्थिति बनती है, वह है तन्मयता । तन्मय हो जाने का अर्थ है - एक हो जाना । ध्येय और ध्याता तब दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं । जो पूर्व रूप था वह मिट जाता है और जो ध्येय का रूप है वह अवतरित हो जाता है । पूर्वं व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और ध्येय का व्यक्तित्व समाविष्ट हो जाता है । वहां 'मैं' समाप्त हो जाता है । जो बनना होता है वह घटित हो जाता है । साधक उस स्थिति में चला जाता है, जहां ध्याता और ध्येय दो नहीं रहते । ध्याता स्वयं ध्येय रूप बन जाता है । फिर व्यक्ति अलग नहीं होता और सामायिक अलग नहीं होती । व्यक्ति स्वयं सामायिक बन जाता है । फिर वह ऐसा नहीं कह सकता कि 'मैं सामायिक कर रहा हूं ।' कौन करने वाला और कौन सामायिक ? ' मैं सामायिक करता हूं'इसका तात्पर्य है कि एक करने वाला है और एक की जाने वाली वस्तु है । यह भेद समाप्त हो जाता है । तब 'मैं' और 'सामायिक' दो नहीं रहते । करने की बात छूट जाती है । सामायिक जीवन में अवतरित हो जाती है । समता के ध्येय को उपलब्ध करने के लिए जीवन में सामायिक की घटना घटित होनी आवश्यक होती है । इसकी संपूर्ति के लिए चारों प्रकार की शक्तियों का उपयोग करना होता है
१. कल्पना की शक्ति २. इच्छा की शक्ति
३. एकाग्रता की शक्ति ४. तन्मयता की शक्ति ।
जब ये चारों शक्तियां साधक को उपलब्ध हो जाती हैं, तब जीवन में सामायिक अवतरित होती है । यह केवल सामायिक की ही प्रक्रिया नहीं है । आप जो भी ध्येय बनाएं, जो भी चित्र बनाएं, जिसको उपलब्ध
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