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शक्ति की श्रेयस् यात्रा
२५६ की ऊर्जा जब एक दिशागामी होती है तब हम जो बनना चाहते हैं वह बन जाते हैं । 'एगायणं रयस्स-जो एक ही आयतन में रत होता है, जो एक ही आयतन को देखता है, वह उस आयतन तक पहुंच जाता है। कभी नहीं भटकता । हम सीधी दिशा में चलें, परिक्रमा न करें। परिक्रमा करने वाला उस निश्चित वर्तुल में ही घूमता रहता है, आगे नहीं बढ़ पाता। आगे वह बढ़ता है जो एक ही दिशा में चलता रहता है। साधक परिक्रमा न करे, सीधा उस चित्र की दिशा में बढ़ता जाए। मन की सारी ऊर्जा को एक दिशा में प्रवाहित करना सफलता का चिह्न है । जब तीनों शक्तियों-कल्पनाशक्ति, संकल्पशक्ति और एकाग्रता की शक्ति-का उपयोग सम्यक् होने लगता है, उस समय हम तन्मय होकर ध्यान की स्थिति में चले जाते हैं।
हमारा ध्येय है सामायिक । हम हैं ध्याता । ध्याता और ध्येय के बीच बहुत दूरी होती है। आप पूछेगे-कितनी दूरी? इसका कुछ निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। किन्तु इसके लिए एक सिद्धान्त स्थापित किया जा सकता है कि जितनी व्यग्रता उतनी ही दूरी। जितनी एकाग्रता उतनी ही दूरी की कमी । मन की व्यग्रता दूरी को बढ़ाती है। मन की एकाग्रता दूरी को कम करती है।
मन की दो भूमिकाएं हैं। एक है व्यग्रता की भूमिका और दूसरी है एकाग्रता की भूमिका । व्यग्न मन अर्थात् एक अग्र-आलंबन पर न टिकने वाला मन । नाना अगों-आलंबनों पर भटकने वाला मन । उसका भटकाव कभी नहीं मिटता । एकाग्रमन अर्थात् एक ही अग्र पर टिकने वाला मन। इनमें भटकाव मिट जाता है।
जितनी व्यग्रता होती है उतनी ही दूरी बनी की बनी रहती है। व्यक्ति ध्येय के निकट नहीं पहुंच पाता। ध्येय तक पहुंचने के लिए व्यग्रता को कम करना होगा।
ज्ञान की दो अवस्थाएं हैं---ज्ञान और ध्यान । दोनों ज्ञान हैं। जो चेतना चंचल है, उसका नाम है ज्ञान और जो चेतना स्थिर है, उसका नाम है ध्यान । ध्यान ज्ञान है, परन्तु हर ज्ञान ध्यान नहीं है । प्रत्येक ध्यान ज्ञान है। ऐसा कोई भी ध्यान नहीं है जो ज्ञान न हो, अज्ञान हो । किन्तु प्रत्येक ज्ञान ध्यान नहीं है। वही ज्ञान ध्यान है जो एकाग्र है, एक आलंबन पर चलने वाला है।
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