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मन की शक्ति और सामायिक
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यहीं से अलगाव का सिलसिला चालू हो जाता है । यह सब द्वन्द्वात्मक चेतना से होता है।
द्वन्द्व-चेतना समस्याओं की जननी है । वहां सभी प्रकार की समस्याएं उभरती हैं। उनका कहीं अन्त नहीं आता। जब तक द्वन्द्व-चेतना है तब तक चाहे ज्ञान की शक्ति का उपयोग किया जाए, दर्शन की शक्ति का उपयोग किया जाए, शुद्ध शक्ति का उपयोग किया जाए, ये तीनों एक ओर खड़े हैं
और एक ओर मूर्छा की चेतना, मूर्छा की शक्ति खड़ी है, तो वे तीनों कार्यकर नहीं होते। मूर्छा उत्पादक केन्द्र है। वह आवेग को उत्पन्न करती है, द्वंद्व को उत्पन्न करती है। इस स्थिति में तीनों के होने पर भी दुःख समाप्त नहीं होता । यदि दुःख को समाप्त करना है तो द्वंद्व चेतना को समाप्त करना होगा।
कोई भी मनुष्य समस्या नहीं चाहता, दुःख नहीं चाहता। यही एक प्रेरणा है द्वन्द्व-चेतना को समाप्त करने की। यहां एक व्याप्ति बनती है। जब तक द्वंद्व-चेतना होगी तब तक दुःख निश्चित ही होंगे। उनका कभी अन्त नहीं होगा । द्वंद्व-चेतना का होना ही दुःख का होना और द्वंद्व-चेतना का नहीं होना ही दुःख का नहीं होना है । समस्याओं और दुःखों से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है द्वंद्व-चेतना का समापन ।
द्वंद्व-चेतना के समापन का एक और हेतु है। वह यह है कि मानव मस्तिष्क में अभौतिकता की एक चाह निरंतर बनी रहती है। यह मनुष्य की प्रकृति है । मनुष्य की इस प्रकृति का बोध उन लोगों को नहीं होता जो अभाव से ग्रस्त होते हैं । जिन्हें भौतिक पदार्थ उपलब्ध नहीं होते, उन मनुष्यों को इस सचाई का बोध नहीं होता क्योंकि उनकी सारी ऊर्जा पदार्थों की ओर ही प्रवाहित होती है। किन्तु जो लोग पदार्थों को उपलब्ध हो चुके हैं, जिन्हें भौतिक पदार्थों की कोई चाह नहीं है, उनको यह बोध होता है कि मनुष्य में एक ऐसी अमिट चाह है जो उन भौतिक पदार्थों से भी परे है । वह जान जाता है कि ऐसी चीज भी है जो इन पदार्थों से परे है। यदि भौतिक पदार्थों की संपन्नता शिखर पर पहुंच जाए और आदमी पूरा संतुष्ट हो जाए, तब तो कथा समाप्त । कोई खोज की जरूरत ही नहीं। किन्तु शिखर पर पहुंचने पर तो ऐसा लगता है कि मानो एक नयी तलहटी पर पहुंच गए हैं। दुःखों की नयी तलहटी उनके सामने आ गयी है । तब लगता है, कुछ और होना चाहिए जो पूर्णता दे सके । ये भौतिक पदार्थ पूर्णता नहीं दे पा रहे हैं। उस स्थिति
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