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प्रवचन २४
|संकलिका
• जब द्वन्द्व के आघात से चेतन सत्ता के साक्षात् की भावना और स्व
तन्त्रता की अनुभूति जागती है तब आत्मिक उन्मेष घटित होता है। यही है-सामायिक । • जितना आत्मा का अनुभव उतना ही समभाव । • ध्यान और ध्येय के बीच की दूरी जितनी अधिक उतने ही विकल्प
अधिक, जितनी दूरी कम उतने ही विकल्प कम । दूरी समाप्त, विकल्प समाप्त । • हमारा परिणमनात्मक अस्तित्व । इस प्रक्रिया से हम तन्मय या तद्
रूप हो, हम वही हो जाते हैं जैसा हमारा ध्येय होता है। • अज्ञान+शक्ति = अश्रेयस् की यात्रा।
ज्ञान + शक्ति =श्रेयस् की यात्रा। • 'बनने' के चार स्तंभ० कल्पनाशक्ति • संकल्पशक्ति • एकाग्रता की शक्ति ।
० तन्मयता की शक्ति । • मन की दो भूमिकाएं
• व्यग्रता ० एकाग्रता । • कर्म-शरीर महाप्रपात है, शेष सारे छोटे-छोटे प्रपात हैं ।
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