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अध्यात्म की यात्रा
१७६ चैतन्य-केन्द्रों को देखने का प्रयत्न महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अध्यात्म-विकास का एकमात्र साधन है। शरीर-प्रेक्षा को आप छोटा न मानें । यह न समझे कि शरीर के भीतर क्या देखें ? भीतर रक्त है, मांस है, हड्डियां हैं, ग्रन्थियां हैं और स्नायु-मंडल है। इन्हें क्या देखें? क्यों देखें ? यदि साधक यही देखेगा तो वह शरीर-प्रेक्षा करता हुआ भी बहिरात्मा ही रह जाएगा। ये शरीर की चीजें हैं । साधक को और गहरे में जाना होगा। उसे इस शरीर के भीतर सूक्ष्म सत्ता का जो प्रकाश है, अरूपी सत्ता का जो आलोक है, चैतन्य की जो जगमगाहट है, उसका अनुभव करना होगा, साक्षात् करना होगा। वह प्रकाश बाहर प्रस्फुटित होने को तैयार है, यदि साधक उसे बाहर लाना चाहे । उसकी तैयारी है, उत्सुकता है किन्तु साधक की उपेक्षा है । वह उसकी उपेक्षा किए जा रहा है । केवल उपेक्षा, उपेक्षा ही उपेक्षा ।
___एक साधक ने कहा-"जब मैं पहली बार ध्यान करने बैठा, मुझे लगा कि समय निकम्मा बीत रहा है।" एक घंटा यदि कुछ लिखा जाए, काम किया जाए, पढ़ा जाए, भोजन बनाया जाए तो समय की सार्थकता होती है। ध्यान में समय बीतता अवश्य है, पर वह निरर्थक बीतता है। आंख मूंदकर बैठना कोई काम नहीं कहा जा सकता। काम वही होता है जिसकी निष्पत्ति बताई जा सके । एक घंटा तक रसोई घर में काम किया। उस काम की निष्पत्ति हुई-भोजन की तैयारी। एक घंटा तक पढ़ा। निष्पत्ति हुई-ज्ञान की वृद्धि, तथ्यों की अवगति । एक घंटा ध्यान किया, आंखें बन्द रखीं, मिला कुछ नहीं, निष्पत्ति कुछ भी नहीं। किसी के पूछने पर ध्यानी क्या बता पायेगा? कुछ नहीं बता पायेगा। जब यह स्थिति है, वास्तविकता है तो ऐसा निरर्थक कार्य क्यों किया जाए ? वही कार्य हाथ में लें जिसकी निष्पत्ति हो, जिसका फल सामने दीखे, दूसरे को बताया जा सके कि 'यह काम किया था, इसकी निष्पत्ति यह है, इसकी फलश्रुति यह है।'
अनेक शोध-संस्थान हैं जहां हजारों शोधकर्ता विभिन्न विषयों पर शोध कर रहे हैं। संस्थान धपपतियों द्वारा चलाए जा रहे हैं। वे नहीं जानते कि शोध क्या होती है ? शोधकर्ता हैं विद्वान् । वे जानते हैं शोध का मार्ग कितना टेढ़ा-मेढ़ा है, कितना कंटकाकीणं है। दस दिन तक एक शब्द पर रुक गए तो रुक ही गए । उसकी शव-परीक्षा करने में उन्हें अनेक दिन बिताने पड़ सकते हैं। शोध-संस्थान के अधिकारी सोचते हैं ---यह क्या ! एक
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