________________
मानसिक शक्ति का विकास और उपयोग
२३६ जीवन में बहुत दुःखी होते हैं। ऐसे लोग अन्त समय में ऐसा कहते हुए सुने गए हैं-'कोई भी इस मार्ग को न अपनाए । यह निकृष्ट मार्ग है।'
हम सटोरियों को बहुत बार यह कहते हुए देखते हैं कि भाई ! यदि कोई अपना भला चाहे तो वह सट्टे के व्यापार में न फंसे । यह खराब धन्धा है । कोई उन्हें पूछता है-"फिर आप क्यों करते हैं ?" वे कहते हैं-"यह हमारी आदत की लाचारी है। हम तो फंस गए। दूसरे इसमें कभी न फंसें। यह बरबादी का मार्ग है। इस मार्ग में पड़कर कोई सुखी नहीं हुआ है।"
ठीक यही दशा उन लोगों की है जो तुच्छ शक्तियों के लिए अपनी मानसिक शक्ति नियोजित करते हैं । वे छोटी-छोटी सिद्धियों में उलझकर अपने महान् लक्ष्य को मुला बैठते हैं ।
यह भी रुचि का प्रश्न है । कुछेक व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने में रुचि रखते हैं और कुछ चामत्कारिक साधना को अपना ध्येय बनाते हैं। दोनों की दो दिशाएं हैं । एक दिशा मंजिल तक पहुंचाती है और एक दिशा भटकाती है । एक आत्मगामी दिशा है और एक अनात्मगामी । एक आन्तरिक यात्रा की दिशा है और एक बहिर भटकाव की दिशा है। मन की शक्ति का जागरण दोनों दिशाओं में होता है। केवल अन्तर है-उस शक्ति के उपयोग का।
अध्यात्म की साधना परम की साधना है। उसमें मन की शक्ति का उपयोग अध्यात्म की दिशा में करना होता है। मन को निर्मल बनाना, आत्म-साक्षात्कार करना-- यह सबसे बड़ा चमत्कार है। इससे बढ़कर दुनिया में कोई चमत्कार नहीं हो सकता। आत्म-साक्षात्कार से बड़ा उपक्रम कोई है ही नहीं। इससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है। जो साधक परम को पकड़ लेता है वह तुच्छ में नहीं उलझता। जो अनन्यदर्शी है वह दूसरे को नहीं देखता, स्वयं को ही देखता है। जो अनन्यदर्शी है वह दूसरे में रमण नहीं करता, वह स्व में ही रमण करता है। जो अनन्यदर्शी होता है वह दूसरे को नहीं चाहता, परम को ही चाहता है। जो अनन्य में रमण करता है, दूसरे में रमण नहीं करता, वह अनन्य को देख लेता है। वह अनन्यदर्शी हो जाता है।
अनन्य का अर्थ है-आत्मा । अनन्यदर्शन की प्रक्रिया आत्मदर्शन की प्रक्रिया है । इसका तात्पर्य है-केवल आत्मा को देखना, और किसी को नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org