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२०. उपसंपदा
हम एक विशिष्ट अनुष्ठान के लिए उपक्रम कर रहे हैं । यह अनुष्ठान एक आन्तरिक प्रयत्न है। कोई भी मनुष्य प्रयत्न के बिना रह नहीं सकता, किन्तु प्रयत्न की दो दिशाएं होती हैं-एक बाहरी दिशा में प्रयत्न होता है और एक आन्तरिक प्रयत्न होता है। बाह्य प्रयत्न अपने परिणाम लाते हैं और आन्तरिक प्रयत्न अपने परिणाम लाते हैं। बाह्य प्रयत्न के परिणामों के दर्शन के पश्चात् अनुभव होता है कि पूरा नहीं हुआ, कुछ शेष है, बाकी है। यह अनुभूति ही इस अन्तःप्रयत्न को प्रेरणा देती है। यदि यह न हो, रिक्तता न हो, बाह्य प्रयत्न से पूर्णता हो जाए तो फिर मनुष्य को इस अन्तःप्रयत्न को गति देने की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किन्तु हम देखते हैं कि तीव्रतम बाह्य प्रयत्न या बाह्य प्रयत्न के शिखर पर पहुंचकर भी लोग ऐसा अनुभव करते हैं कि अभी जीवन की तलहटी में ही हैं । वह शिखर का अनुभव नहीं कराता। तब सोचना पड़ता है कि इतना ऊंचा पहुंचने पर, शिखर पर पहुंचने पर भी वही मानसिक व्यथाएं, वही कष्ट, वही चिताएं-दुश्चिन्ताएं सारी की सारी हैं और बढ़ती चली जा रही हैं तो जरूर यह शिखर, जो चुना है, कोई सही रास्ता नहीं हो सकता । भूल से इस शिखर पर आए या भ्रम हो गया कि जो शिखर नहीं था उसे शिखर मान लिया गया। इसीलिए नई दिशा खोजने की बात चलती है। हम एक अनुष्ठान कर रहे हैं, यह वास्तव में सत्य की खोज का अनुष्ठान है। एक ऐसा आरोहण है कि जो एवरेस्ट की चोटी से भी बहुत ऊंची चोटियों पर पहुंचने का अभियान है । इस अभियान में काफी शक्ति चाहिए । शरीर-बल भी चाहिए, मनोबल भी चाहिए और तपस्या का बल भी चाहिए, गुरु का बल भी चाहिए । आचार्यश्री उपस्थित हैं, इस अनुष्ठान के आदि क्षणों में। और आप सोचते हैं कि कल आचार्यवर प्रस्थान करेंगे, यहां उपस्थित नहीं होंगे । यह भी आप खोज करें। इसे ही सत्य की खोज बनाएं । उपस्थिति का अर्थ मात्र शारीरिक दूरी का न होना ही हो, तब तो यह सत्य का अनुष्ठान नहीं है। फिर तो एक शरीर का अनुष्ठान होगा, बाहर का ही अनुष्ठान होगा। हमें मन की शक्ति पर
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