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आजादी की लड़ाई
१६६.
करना था । एक व्यक्ति ने उसे लालटेन देते हुए कहा - " इसके प्रकाश में तुम अपना रास्ता देख पाओगे । मार्ग सुख से कटेगा । इसे ले जाओ ।" उस यात्री ने देखा कि लालटेन का प्रकाश तीन-चार फुट तक फैल रहा है । उसके मन में संदेह हुआ कि रास्ता तो बहुत लम्बा है । प्रकाश केवल तीन-चार फुट तक पड़ता है रास्ता पार कैसे कर पाऊंगा ? वह उलझ गया और उलझता ही गया । वह बोला - "तीन-चार फुट का प्रकाश मुझे दस मील की M
।
यात्रा कैसे करा पाएगा ?"
यही गतिविधि को न समझने वाले की होती है । उसे लगता है श्वास- प्रेक्षा या शरीर प्रेक्षा से आत्मा उपलब्ध कैसे होगी ? ये छोटे-से साधन आत्मा तक की यात्रा कैसे करा पाएंगे ? आत्मा बहुत दूर है | श्वास बेचारा नथुने तक ही सीमित है । उसका प्रकाश वहीं पड़ता है । आगे नहीं फैलता । श्वास का अन्तिम पड़ाव है फेफड़ा । यह आत्मा की यात्रा कैसे कराएगा ?
यह विधि न समझने का कारण है । विधि को समझे बिना साधक उलझ जाते हैं । विधि को ठीक समझ लेते हैं तो तीन-चार फुट का प्रकाश दस मील की यात्रा करा सकता है । यह प्रकाश दस मील के पूरे पथ को प्रकाशित कर सकता है । आप चलते चलें, दस मील का रास्ता प्रकाशित हो जाएगा और यदि उसी बिन्दु पर खड़े रह गए तो दो फुट का रास्ता ही प्रकाशित होगा, शेष अन्धकार ही अन्धकार रहेगा । आवश्यकता है चलने की, सतत गतिशील रहने की ।
विधि को समझें और चलें । विधि को
समझना ही पर्याप्त नहीं है,
चलना भी पड़ेगा । आगे से आगे बढ़ना होगा । यदि नहीं चले, रुके रह गए. तो प्रकाश जहां पड़ता है वहीं पड़ेगा, वह आगे नहीं बढ़ेगा । वह तभी बढ़ेगा जब हम बढ़ेंगे। वह हमारे रुकने के साथ रुकेगा और बढ़ने के साथ बढ़ेगा | अभ्यास करते जाएं। अभ्यास करते जाएं। आप अपनी मंजिल तक पहुंच जाएंगे ।
किन्तु एक बाधा और आ जाती है । चलते-चलते एक संदेह और उभर आता है कि श्वास को देखने से क्या होगा ? शरीर को देखने से क्या होगा ? मन में अश्रद्धा आ जाती है । आकर्षण समाप्त हो जाता है | श्वास निरन्तर चल रहा है। उसे क्या देखना ? संसार में जो नया है, उसे देखना चाहिए । संसार मोहक है । कहीं पचास मंजिल मकान हैं और कहीं कांच की
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