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साधना की निष्पत्ति
प्रारम्भ और परिणाम-दोनों साथ-साथ रहते हैं। दोनों एक साथ उत्पन्न नहीं होते, किन्तु दोनों जुड़े रहते हैं। एक पहले होता है और एक पीछे। कोई भी मनुष्य कुछ प्रारम्भ करता है तो पहले सोच लेता है कि इसका परिणाम क्या होगा? निष्पत्ति क्या होगी? परिणाम या निष्पत्ति का चितन किए बिना कोई भी कार्य प्रारम्भ नहीं किया जाता। परिणाम का चिंतन किए बिना जो कार्य प्रारम्भ करते हैं, वे बहुत समझदार नहीं होते।
अध्यात्म के पथ पर चरणन्यास करने वाला साधक भी पहले यह सोचता है कि इस साधना की निष्पत्ति क्या होगी? मेरे अभ्यास का, मेरे इस प्रयत्न का परिणाम क्या होगा? जो बीज बोया है, उसका फल कैसा होगा? फल की बात समझ में आ जाए तो व्यक्ति चलना प्रारंभ कर देता है। निष्पत्ति की बात बहुत आवश्यक है। निष्पत्ति के बिना साधना का कोई क्रम चल नहीं सकता।
हमारी साधना चल रही है । इसकी पहली निष्पत्ति है-तनावमुक्ति। जो भी साधक इस साधना में आएगा, प्रयत्न करेगा, समय लगायेगा, उसको यह सुखद अनुभव होगा कि उसके तनाव धीरे-धीरे विसजित हो रहे हैं। कोई कायोत्सर्ग करे और तनाव न मिटे, यह कभी नहीं हो सकना । कायोत्सर्ग तनाव-मुक्ति का अचूक उपाय है। कायोत्सर्ग भी चले और तनाव भी चले-यह हो नहीं सकता। दोनों साथ नहीं रह सकते। कायोत्सर्ग सधते ही तनाव मिट जाता है । उसे मिटना ही होता है। एक ही रह सकता हैया तो कायोत्सर्ग रहेगा या तनाव । दोनों नहीं रह सकते । इन दोनों में कोई समझौता नहीं है। जिन्होंने कायोत्सर्ग का अभ्यास किया है, शरीर के शिथिलीकरण का प्रयत्न किया है, ममत्व के विसर्जन का अभ्यास किया है, मानसिक ग्रन्थियों को खोलने का अभ्यास किया है, उन्होंने यह अनुभव किया है कि शरीर हल्का हो गया है। वह सर्वथा तनावमुक्त हो गया है। उसका शरीर जमीन से ऊपर उठ रहा है । शरीर का जमीन से ऊपर उठना छोटी
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