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किसने कहा मन चंचल है
सड़कें हैं। उन्हें देखो। देखते जाओ। श्वास को क्या देखना ? यह विचार आते ही आकर्षण की धारा मुड़ जाती है। वह मोह के साम्राज्य में चली जाती है। लड़ाई का मोर्चा ठंडा पड़ जाता है। ध्यान भी चले और बाहरी आकर्षण भी बना रहे-दोनों बातें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। बाहरी आकर्षण को तोड़ना होगा। खान-पान, रहन-सहन बदलना होगा । आकर्षण की धारा को मोड़ना होगा। मैं यह नहीं कहना चाहता कि पहले ही दिन सब कुछ बदल जाएगा। दो-चार दिनों में बदल जाएगा । अभ्यास यदि लंबा चलेगा तो धीरे-धीरे सब-कुछ बदल जाएगा। रूपान्तरण होने लगेगा। वर्षों तक अभ्यास करना होगा। जीवनपर्यन्त अभ्यास करना होगा । किसीकिसी साधक को अनेक जन्मों में साधना करते-करते ही मंजिल प्राप्त हो सकती है। एक-दो जन्मों में नहीं।
हमें अपनी श्रद्धा को बदलना होगा। श्रद्धा का अर्थ है-आकर्षण, इच्छा । आकर्षण की धारा को मोड़ना होगा। आकर्षण की जो धारा एक दिशा में बह रही थी, उसे मोड़कर विपरीत दिशा में प्रवाहित करना होगा।
__सफलता में समर्पण का भी महत्त्वपूर्ण योग है। जो समर्पित नहीं होता, वह सफल नहीं होता। लक्ष्य के प्रति जो डेडिकेट नहीं होता, वह कभी सफल नहीं होता। पूर्ण समर्पण । न तर्क, न वितर्क, केवल समर्पण । समर्पित भाव से एक छोटा व्यक्ति भी बहुत बड़ा काम कर सकता है। जिसमें समर्पण भाव नहीं है वह शक्तिशाली होने पर भी छोटा काम नहीं कर पाता । असफल रहता है । हार जाता है।
हम अभ्यास के प्रारंभ में अर्ह-अहं की ध्वनि करते हैं। अहं के प्रति संपूर्ण भाव से समर्पित होते हैं। हम अपने समस्त आकर्षण को अहं के प्रति प्रवाहित करते हैं। हम सर्वात्मना 'अहं' के प्रति समर्पित हो जाते हैं और अपनी सारी श्रद्धा उसमें अन्तनिहित कर देते हैं । अहं की ध्वनि गूंजती है। सारा वातावरण उस ध्वनि से तरंगित होकर विद्युत्मय बन जाता। फिर हम अपनी साधना में लगते हैं । जो अभ्यास करना है, उसमें लग जाते हैं।
जब हम अपनी साधना को संपन्न कर उठते हैं तब भी हम अहं के प्रति समर्पण भाव या कृतज्ञभाव ज्ञापित करते हैं। हम कहते हैं--'अरहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलि पन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ।' पूरा समर्पण । पूरा समर्पण। कुछ भी शेष नहीं रहता । महान् सत्य के प्रति समर्पण । अहंत कोई व्यक्ति नहीं है । सिद्ध कोई
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