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अध्यात्म की यात्रा
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अभ्यास करते हैं, तब हमें लगता है कि मंजिल बहुत दूर है, यात्रापथ बहुत लंबा है। हमें रुकना नहीं है, निराश नहीं होना है, चलते चलना है। मंजिल हमारे निकट आती जाएगी। हमें आशा और स्फूर्ति के साथ बढ़ते जाना है, सब बाधाओं को पर करना है, किन्तु हमारे हाथ में एक दीया चाहिए, जिससे कि हम चट्टानों से न टकराएं, पर्यों को दूर हटाएं और अंधकार को चीर डालें। यह दीया होगा शुद्ध चेतना का।
अध्यात्म की यात्रा में हमने शुद्ध चेतना का एक दीपक लिया है। यह राग-द्वेष के क्षणों से रहित दीपक है । हम राग-द्वेष से रहित क्षणों में जीएं और दीये के साथ-साथ चलते रहें । हम सारी बाधाओं को मिटाने में सक्षम हो जाएंगे फिर वे बाधाएं चाहे अंधकार की हों, चट्टानों की हों और मादक मूर्छाओं की हों, सबको तोड़कर, चीरकर हम आगे बढ़ते जाएंगे। हाथ में थामे उस दीपक के द्वारा हमें उस महान् प्रकाशपुंज तक पहुंचना है।
धर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है-अध्यात्म की यात्रा। जो धर्म अध्यात्म की यात्रा प्रारंभ नहीं करता और अपने अनुयायियों से अध्यात्मयात्रा नहीं कराता, वह धर्म एक प्रकार से छलना है, धोखा है, ढोंग है और यदि उसे अफीम भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
___ आज के धार्मिक लोगों ने अध्यात्म-यात्रा को भुला दिया इस महापुण्य यात्रा को विस्मृत कर दिया। उन्होंने लोगों को सिखाने का प्रयत्न किया-भले आदमी बनो, स्वार्थ को छोड़ परमार्थ में प्रवेश करो, प्रामाणिक बनो, नैतिक बनो, शुद्ध आचरण करो, सबके साथ मैत्री करो, अहिंसा का पालन करो, चोरी मत करो, संतुष्ट रहो । ये बातें अच्छी हैं। इनको चाहना अच्छा है । किन्तु ये उपदेश चलते रहे और आदमी मूल का हो रहा । उसमें कोई रूपान्तरण नहीं हुआ। उपदेश उपदेश मात्र बना रहा । बात यह है कि जब तक परिवर्तन की प्रक्रिया सामने नहीं आती, क्रियान्वित का उपाय सामने नहीं आता, तब तक कहने वाला कहता रहता है, सुनने वाला सुनता रहता है, दोनों नहीं थकते। न कहने वाला थकता है और न सुनने वाला थकता है। यह भी मन-बहलाव का साधन बन जाता है । इस प्रकार के उपदेशों से कोई परिवर्तन नहीं होता।
एक चूहा था। एक उल्लू था। दोनों मित्र थे । एक दिन चूहे ने उल्लू से कहा-'मित्र ! क्या करूं ? बिल्ली बहुत सताती है । उससे सदा भयभीत रहता हूं। कोई उपाय बताओ कि मैं इस भय से मुक्त हो सकू।' उल्लू ने कहा
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