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अध्यात्म की यात्रा
जब हम बाहर ही बाहर देखते हैं तब बाहर के प्रति हमारी आसक्ति इतनी गाढ़ हो जाती है, इतनी तीव्र हो जाती है कि हमारी आत्मा 'बहिरात्मा' बन जाती है, अन्तरात्मा नहीं रहती। भीतर से हटकर केवल बाह्य बन जाती है। बाहर का आकार ले लेती है। फिर सारी प्रवृत्ति बाह्य को देखती है । सब कुछ बाहर ही बाहर, भीतर कुछ भी नहीं। बहिरात्मा का परिणमन होता है। हमारी आत्मा बहिरात्मा बन जाती है।
___ जब किसी निमित्त से भीतर की यात्रा प्रारंभ होती है और इस सचाई का एक कण, एक लव अनुभूति में आ जाता है कि सार सारा भीतर है, सुख भीतर है, आनन्द भीतर है, आनन्द का सागर भीतर लहराता है, चैतन्य का विशाल समुद्र भीतर उछल रहा है, शक्ति का अजस्त्र स्रोत भी भीतर है, अपार आनन्द, अपार शक्ति, अपार सुख--यह सब भीतर है, तब आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है बाह्य आत्मा का वलय टूट जाता है । बाह्य अनुभूति के स्तर पर आत्मा बहिरात्मा बनती है तो आन्तरिक अनुभूति के स्तर पर आत्मा आन्तरात्मा बनती है। अध्यात्म की यात्रा के स्तर पर आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है । तब हमारी परिणति आन्तरिक बन जाती है। अन्तरात्मा का उन्मेष जाग जाता है।
जब साधक इससे आगे बढ़ता है तब अनुभूति का स्तर बदल जाता है । श्रेय के साथ हमारा संबंध जुड़ जाता है, शुद्ध चेतना के साथ हम मिल जाते हैं। जिसके साथ संबंध कटा-कटा-सा था, उस विशुद्ध चेतना के साथ पुनः संबंध स्थापित हो जाता है। एक छोटा स्रोत अपने मूल स्रोत से मिल जाता है । यह परम आत्मा की स्थिति है। इस स्तर पर आत्मा परमात्मा बन जाती है।
अनुभूतियों के स्तरों के आधार पर आत्मा के तीन रूप बन जाते हैं बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
हम इसकी तुलना आज के मनोविज्ञान की भाषा से कर सकते हैं। उसके अनुसार मन के तीन प्रकार हैं-कोन्शियस माइंड, सबकोन्शियसं माइंड और अनकोन्शियस माइंड-~-चेतन मन, अर्द्धचेतन मन और अवचेतन मन।
चेतन मन अर्थात् जागत मन । यह स्थूल मन है। यह बाहर ही बाहर घूमता है, बाहर को ही देखता है, यह केवल बाहर का बन जाता है। इसे हम बहिरात्मा कह सकते हैं । यह बहिरात्मा की स्थिति का अनुभव है।
अर्द्धचेतन मन भीतर है, बाहर नहीं है। यह भीतर ही काम करता
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