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किसने कहा मन चंचल है.'
स्थितियां आएं, साधक क्षमाशील रहे, वह क्षुब्ध न हो । जलाशय में एक ढेला फेंकते हैं तो जल क्षुब्ध हो जाता है। इस दुनिया में ढले फेंकने वाले बहुत हैं। यदि आदमी भी ढेलों पर क्षुब्ध होता जाए तो वह साधना ही क्या कर पाएगा? सब कुछ सहते जाना ही साधक की गम्भीरता है। यह गम्भीरता नाम की शक्ति है। इसे विकसित करना चाहिए।
___ अध्यात्म शक्ति के अनेक रूप हैं, जो अनेक दिशाओं से आने वाली बाधाओं से हमारी सुरक्षा करते हैं, उनसे हमें बचाते हैं। ये सारे कवच हैं। यदि शक्ति का कवच न हो तो चेतना कभी भी मलिन बन जाए। चेतना को मलिनता से बचाने का एकमात्र तत्त्व है-शक्ति। शक्ति को छोड़कर चेतना की उपासना नहीं कर सकते।
हमारी यात्रा बहुत छोटी है। हमें केवल इतना ही काम करना है, उस अनन्तशक्ति के स्रोत को खोज निकालना है। हमारी यात्रा का इतना ही उद्देश्य है। छोटा-सा उद्देश्य है। छोटा यात्रापथ और छोटी मंजिल । प्रयत्न करने पर वहां तक पहुंचा जा सकता है ।
अब प्रश्न होता है कि वहां तक पहुंचने के सूत्र क्या हैं ? अनेक सूत्र हैं । मैं एक सूत्र प्रस्तुत करता हूं। वह है-तन्मूर्ति योग ।
ध्यान दो प्रकार के होते हैं-स्वरूपावलंबी ध्यान और पररूपावलंबी ध्यान । साधक को पहले यह निर्णय करना होता है कि वह क्या बनना चाहता है । यदि वह वीतराग बनना चाहता है तो उसे स्वरूपावलंबी ध्यान करना होगा। कोई दूसरा ध्यान वहां तक नहीं पहुंचा पाता। शुद्ध चेतना को प्राप्त करने के लिए केवल वीतराग स्वरूप का आलंबन ही कार्यकारी होता है। दूसरे आलंबन उसकी उपलब्धि नहीं करा सकते। यह है हमारा वह ध्यान, जैसे कोई व्यक्ति सिर पर दीया रखकर खड़ा रहता है तो चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है, वैसे ही इस ध्यान से चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है, शुद्ध चेतना का अनुभव हो जाता है।
यदि कोई साधक मनोबली बनना चाहता है, वाक्बली बनना चाहता है, इन्द्रियों को पटु-पटुतर बनाना चाहता है तो फिर उसे ध्यान की सारी ऊर्जा को, प्राण की सारी ऊर्जा को एक दिशा में प्रवाहित करना होगा। इसकी प्रक्रिया यह है
साधक पहले अपने ध्येय को निश्चित करे । मान लें कि वह कायवली बनना चाहता है । यह उसका ध्येय है। अब उसे कायबली के अप्रतिम
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