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उपसंपदा
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अर्थ है-प्रतिक्रिया से बचना । प्रत्येक व्यक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व है, उसकी स्वतंत्र सत्ता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व और सत्ता तब स्थापित होती है जब वह स्वतंत्र क्रिया करे । यदि उसकी सारी प्रवृत्तियां प्रतिक्रियात्मक ही होती हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह पूर्ण स्वतंत्र नहीं है। वह अपनी स्वतंत्रता का स्वयं ही खंडन कर रहा है। वह पूर्ण परतंत्रता को घोषित करता है और दूसरों के हाथ का एक खिलौना मात्र बन जाता है। साधक को ऐसा नहीं होना चाहिए । वह क्रिया करे, प्रतिक्रिया नहीं।
आज का आदमी स्वतंत्र बुद्धि से काम नहीं कर रहा है । वह बाह्य वातावरण, परिस्थिति और आसपास के कार्य-कलापों से प्रभावित होकर कार्य करता है । यह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं। वह आवेग या उत्तेजना के वशीभूत होकर कार्य करता है, वह भी प्रतिक्रिया है।
सारा का सारा इन्द्रिय-व्यवहार प्रतिक्रियात्मक होता है । हम आंख से देखें और कान से सुनें, किन्तु कोई संस्कार प्रतिक्रिया पैदा कर रहा है इसलिए देखें या सुनें तो यह देखना और सुनना स्वतंत्र क्रिया नहीं है, प्रतिक्रियात्मक क्रिया है। स्वतंत्र चेतना से देखना या सुनना ही स्वतंत्र देखना या सुनना है।
उपसंपदा का तीसरा सूत्र है-मैत्री । साधक का पूरा व्यवहार मैत्री से ओतप्रोत हो। उसमें मैत्री की भावना का पूर्ण विकास हो। किसी व्यक्ति को सांप काटे और वह सोचे-'कितना अज्ञानी है ! नहीं समझ पा रहा है। व्यर्थ ही क्रोध के वशीभूत होकर दूसरों को कष्ट देता है ! इसका भी कल्याण हो । इसे सही दृष्टि मिले । इसका क्रोध शांत हो । यह किसी को न काटे।' इस प्रकार सांप पर भी जो गीले नेत्रों से इस प्रकार करुणावृष्टि करता है वह सबका मित्र होता है। उसमें मैत्री का विकास चरम बिन्दु पर है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति प्रतिक्रिया से सर्वथा मुक्त हो जाता है। अन्यथा गाली के प्रति गाली, ईंट का जवाब पत्थर से, 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'-ये सब बातें चलती हैं। इन्हें रोका नहीं जा सकता। इन्हें केवल वही व्यक्ति रोक सकता है जिसने इस सचाई को समझ लिया है कि स्वतंत्र अस्तित्व का धनी आदमी प्रतिक्रिया का जीवन न जीए। वह क्रिया का जीवन जीए । वह सचाई जब हृदयंगम हो जाती है तब मैत्री स्वयं फलित होती है।
- उपसंपदा का चौथा सूत्र है-मिताहार । परिमित भोजन का महत्त्व
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