________________
शक्ति-जागरण : मूल्य और प्रयोजन
कार्य है।
इस शरीर में ज्ञानतंतुओं का एक जाल बिछा हुआ है। यदि इनको एक रेखा में बिछाया जाए तो एक लाख वर्ग मील तक पहुंच जाते हैं। हमारा यह संसार केवल पचीस हजार वर्गमील में आ जाता है। ज्ञानतंतु इससे चार गुना अधिक तक पहुंच जाते हैं । ये ज्ञानतंतु हमारी विद्युत् के संवाहक हैं।
__ शरीर की यह एक संरचना भी स्थूल ही है। इसकी भी हमें पूरी जानकारी नहीं है। हमारा ज्ञान सीमित है। हम शरीर के कुछ एक भाग को ही स्थूल रूप से जानते हैं । उसकी सूक्ष्मता से आज भी हम अनभिज्ञ हैं।
जब हम स्थूल शरीर के बारे में भी पूरा नहीं जानते तब सूक्ष्म शरीर की जानने की बात बहुत दूर रह जाती है। जब सूक्ष्म शरीर नहीं जाना जाता तब आत्मा को जानने की बात बहुत ही दूर रह जाती है ।
हम अपनी सुप्त चेतना को जागृत करना चाहते हैं, अपनी शक्तियों के स्रोतों को उद्घाटित करना चाहते हैं । इसका पहला सूत्र है-सूक्ष्म से परिचित होना । जो व्यक्ति सूक्ष्म से परिचित नहीं होता वह अपनी शक्ति का जागरण नहीं कर सकता । शक्ति के जागरण के लिए सक्ष्म से संबंध स्थापित करना होता है, उससे परिचित होना पड़ता है।।
यदि हमें सूक्ष्म से परिचित होना है, उसके साथ संपर्क स्थापित करना है तो सबसे पहले हम स्थूल को सम्यक् प्रकार से जानें । बाहर का दरवाजा खोले बिना भीतर के दरवाजे तक नहीं पहुंचा जा सकता । पहले सोपान पर चढ़े बिना पचीसवें सोपान तक नहीं पहुंचा जा सकता। हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करनी होगी।
ध्यान में हम श्वास का आलंबन लेते हैं। यह पहला सोपान है। इससे स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति प्रारंभ हो जाती है । श्वास ही एक ऐसा तत्त्व है जो बाहर भी आता है और भीतर भी जाता है । दूसरा ऐसा कोई भी साधन नहीं है जो बाहर भी रहे और भीतर भी रहे । मन है। पर मन बेढंगा है। वह स्वयं इतना चंचल है कि उसे आलंबन नहीं बनाया जा सकता। उसको तो आलंबन देना पड़ेगा।
मन एक नटखट बच्चे की तरह है जो अपनी चोटी पकड़ने की कोशिश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org