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मानसिक संतुलन
साफ होती है और मानदण्ड के आयाम बदल जाते हैं ।
साधक कर्मक्षेत्र में रहता है। वह कर्म करता है, आजीविका के साधन जुटाता है किन्तु कर्म से जो दुःख उत्पन्न होता था, उस दुःख की भावना से बच जाता है। कर्म के साथ जो दोष आते थे, वह उनसे बच जाता है। क्रिया से जो प्रतिक्रिया होती थी, वह उनसे बच जाता है। उसकी यह भ्रांति टूट जाती है कि पदार्थ से सुख होता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है। दुःख का मार्ग भिन्न है और सुख का मार्ग भिन्न हैयह स्पष्ट बोध हो जाता है। सुख का मार्ग भिन्न है और आवश्यकता-पूर्ति का मार्ग भिन्न है-समझ में आ जाता है। इस बोध से सन्तुलन स्थापित होता है। मानसिक संतुलन प्राप्त होता है। आज के युग की बहुत बड़ी समस्या है मानसिक असंतुलन । मन उबड़-खाबड़ बन जाता है। कभी वह प्रियता से लबालब भर जाता है तो कभी अप्रियता से भर जाता है। कभी वह विश्वास से पूर्ण होता है तो कभी अविश्वास की सीमा लांघ जाता है। यह सारा असंतुलन है।
अध्यात्म-साधना के द्वारा हम मानसिक संतुलन को प्राप्त कर सकते हैं । मानसिक संतुलन का अर्थ है-न राग और न द्वेष । केवल समभाव ।
प्रेक्षा-ध्यान समभाव की वृद्धि का प्रतीक है ।) हम शरीर की प्रेक्षा करते हैं। प्रिय संवेदनों को देखते हैं और अप्रिय संवेदनों को भी देखते हैं। प्रिय संवेदनों के प्रति राग न हो और अप्रिय संवेदनों के प्रति द्वेष न हो। दोनों के प्रति समता, समभाव बना रहे। हम केवल द्रष्टा बने रहें, देखने वाले बने रहें।
सुख की खोज का प्रयोग इतना लाभदायी है कि वह हमारे दैनिक जीवन में कोई बाधा नहीं डालता । वह आवश्यकता-पूर्ति के साथ आने वाले विष को धो डालता है और व्यक्ति के जीवन को पवित्र बनाता है। जिस व्यक्ति में प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास पक चुका है वह कभी किसी को धोखा नहीं दे सकता। वह किसी के साथ शत्रुता नहीं रख सकता। क्योंकि उसने इन तथ्यों का साक्षात् अनुभव किया है, केवल जाना ही नहीं है । केवल जानना अधूरी बात होती है । साक्षात् अनुभव की बात ही प्रधान होती है। वह रूपान्तरण में सहायक होती है।
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