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मानसिक संतुलन "दादी ! सुई सड़क पर गुम हुई थी ?” बुढ़िया ने कहा-"नहीं, वह कमरे में गुम हुई थी।" बच्चे बोले-"दादी ! यह क्या ? सुई कमरे में गिरी और उसे तुम खोज रही हो सड़क पर। वह कैसे मिलेगी ?"बुढ़िया बोली"बेटा ! ठीक कहते हो, पर करूं क्या? कमरे में अंधेरा है। प्रकाश केवल सड़क पर ही है। प्रकाश में ही तो ढूंढ़ रही हूं?'
आचार्य भिक्षु ने इसी तथ्य को प्रकट करने की कथा कही। एक आंख का रोगी वैद्य के पास गया । वैद्य ने आंख में आंजने के लिए दवा दी। वह घर पर आया और दवा पीठ पर मलने लगा। संयोगवश वैद्य वहां आ पहुंचा । उसने देखा, दवा पीठ पर लगायी जा रही है । वैद्य ने कहा-"यह क्या, आंख की दवा पीठ पर लगा रहे हो ?" रोगी ने कहा - "वैद्य जी ! और क्या करूं? दवा को आंख में लगाते ही आंख जलने लगती है । इतनी जलन कि मैं उसे सहन ही नहीं कर सकता। पीठ पर कोई जलन नहीं होती।"
दो पशु पास-पास खड़े थे। एक था ऊंट और एक था बैल । ऊंट बीमार था—उसे दागना था। दागने वाला आया और उसने ऊंट के बदले बैल को दाग दिया। पूछने पर बोला-"ऊंट तक हाथ नहीं पहुंच रहा था, इसलिए बैल को ही दाग दिया।" बीमार था ऊंट और दागा गया बैल । परिणाम क्या हो सकता है ? ।
हमारे जीवन में ऐसे विरोधाभास कितने चलते हैं, कोई लेखा-जोखा नहीं है। हम दूसरों के विरोधाभास पर हंसते हैं, उनकी मूर्खता का उपहास करते हैं, किन्तु हम स्वयं अपने जीवन में न जाने कितने विरोधाभासों को पालते चले जा रहे हैं। सुख का निर्भर भीतर है और खोज रहे हैं बाहर में। क्या यह विरोधाभास नहीं है ? क्या हमारी यह स्थिति बुढ़िया की-सी नहीं है ?
साधना इस भ्रान्ति को चूर-चूर कर देती है। सुख को खोजने के लिए भीतर में प्रवेश करने की ओर प्रेरित करती है और आवश्यकता की पूर्ति के लिए पदार्थ को अपेक्षित बताती है। पदार्थ सुख नहीं देते, वे आवश्यकता की पूर्ति मात्र करते हैं ।
___ दो खोजें हैं। एक है आवश्यकता-पूर्ति की खोज और दूसरी है सुख की खोज । आवश्यकता की पूर्ति पदार्थ से ही संभव है, अध्यात्म से वह नहीं हो सकती। सुख की उपलब्धि अध्यात्म से ही संभव है वह पदार्थ से नहीं हो सकती । इस सूत्र का स्पष्ट बोध हो जाना चाहिए।
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