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स्थूल और सूक्ष्म की मीमांसा
१३५.
सान्त है, तब वह सीमित तत्त्व असीमित या अनन्त को अपने माध्यम से कैसे अभिव्यक्त कर सकता है ? सान्त में अनन्त को कैसे उतारा जा सकता है । जो जाना गया, वह सारा का सारा बताया जा सके, ऐसा कोई माध्यम हमारे पास नहीं है । अनन्त की चर्चा को हम छोड़ दें। किन्तु प्रतिदिन होने वाले ध्यान के अनुभवों को भी हम भाषा का परिधान नहीं दे सकते । उनको भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जो कुछ बताया जाता है वह अधूरा ही होता है । हम प्रतीक के रूप में उसे थोड़ी-सी अभिव्यक्ति दे पाते हैं, पूरी अमिव्यक्ति नहीं दे पाते। अनुभवों को भाषा के माध्यम से बाहर नहीं लाया जा सकता । कोई माध्यम नहीं है, कोई वाहन नहीं है, जिस पर अनुभव अपनी यात्रा कर दूसरों तक पहुंच सके।
जब सुख की अनुभूति होती है तब मुख-मुद्रा प्रसन्न हो जाती है। जब क्रोध की अनुभूति होती है तब भौंहें तन जाती हैं, सारा शरीर तनाव ग्रस्त हो जाता है। यह सुख की या क्रोध की पूरी अभिव्यक्ति नहीं है। उसका केवल एक अंश मात्र ही अभिव्यक्त हो पाया है। न पूरा सुख अभिव्यक्त हुआ है और न पूरा क्रोध अभिव्यक्त हुआ है। उनका केवल एक अंश ही बाहर फूटा है।
__ तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । जीव वह है जिसमें चेतना है। जीव वह है जो अरूपी सत्ता है। जीव और अजीव के बीच जो भेदरेखा है वह है चेतना। चेतना दोनों को विभक्त करती है। जिसमें चेतना है वह जीव और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीव । यह एक बात है।
दूसरी है-अरूपी सत्ता । अरूपी-यह शब्द हमारे लिए बिलकुल अपरिचित है । यह अपरिचित इसलिए है कि हम इन्द्रियों के जगत् में जीते हैं, इन्द्रियों से परिचित हैं । हम मनस् और बुद्धि के जगत् में जीते हैं, उनसे परिचित हैं । बुद्धि, मन और इन्द्रियों के पास अरूपी को पहचानने का कोई साधन नहीं है, जानने का कोई उपाय नहीं है । इसलिए यह 'अरूपी' शब्द बहुत अपरिचित है। इस शब्द की खोज उसी व्यक्ति ने की जिसने इन्द्रियों के परे, मन और बुद्धि के परे जाकर कुछ देखा, जाना । अवधिज्ञानी भी अरूपी को देख नहीं पाते, नहीं जान पाते । मनः-पर्यवज्ञानी भी अरूपी को नहीं देख सकता, जान सकता । अवधिज्ञान और मनः-पर्यवज्ञान-ये दोनों अतीन्द्रिय
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