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किसने कहा मन चंचल है। अध्यात्म का जीवन नहीं जीने वाले, सदा तनावपूर्ण स्थिति में रहने वाले व्यक्ति मरते समय भी दुःख से मरते हैं, अपने साथ दुःखों की गठरी ले जाते हैं और पीछे भी दुःखों का अंबार छोड़ जाते हैं।
अध्यात्म का जीवन जीने वाला व्यक्ति तनावमुक्त जीवन जीता है। वह संतोष के साथ मरता है और दूसरों के लिए भी आनन्द की अनुभूति छोड़ जाता है।
_ इस स्थिति में चिन्ता का भार ढोना कहां तक बुद्धिसंगत हो सकता है। व्यक्ति क्यों चिन्ता का भार ढोता है और क्यों इस भार से भारी होता चला जाता है । वह क्यों सोचता है कि शेष ही शेष है, निःशेष कुछ भी नहीं।
हम साधना के द्वारा इस मानसिक स्थिति को बदलें। ध्यान के द्वारा हम इस सचाई को उपलब्ध करें कि वर्तमान ही सब कुछ है । वर्तमान में जो होता है, वह संपन्न हो जाता है, शेष कुछ भी नहीं रहता।
तीसरा है-भावनात्मक तनाव । यह बहुत ही जटिल है । यह एक बहुत बड़ी समस्या है । आर्त और रौद्र ध्यान इसके मूल कारण हैं । हम इन दो ध्यानों के सैद्धान्तिक पक्ष से परिचित हैं । अब हमें साधना की दृष्टि से इन्हें समझना होगा।
__ जो वस्तु प्राप्त नहीं है, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना, उसी प्रयत्न में लगे रहना आर्त ध्यान है। प्रिय वस्तु की प्राप्ति तथा मनोज्ञ, और मनोनुकूल पदार्थ की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील रहना और अमनोज्ञ, अप्रिय और मन के विपरीत वस्तु से छुटकारा पाने का प्रयत्न करना-भावनात्मक तनाव पैदा करता है। प्रिय वस्तु कैसे मिले और अप्रिय वस्तु कैसे छूटे-इस चिन्ता में ही सारा समय बीतता जाता है, वर्षों के वर्ष बीत जाते हैं, सारे प्रयत्न उसी दिशा में प्रवाहित होते हैं । प्रिय का वियोग न हो----यह बात भी सताती है और अप्रिय का संयोग न हो यह बात भी सताती है। प्रिय का वियोग हो जाने पर उसे पुनः प्राप्त करने की चिन्ता भी सताती है और अप्रिय का संयोग हो जाने पर उसके वियोग की चिन्ता भी सताती है । यह चिन्ता भावनात्मक तनाव बनाए रखती है। व्यक्ति कभी इससे मुक्त नहीं हो पाता ।
सचाई यह है कि विश्व में किसी भी व्यक्ति को प्रिय का संयोग निरंतर नहीं मिलता और अप्रिय का संयोग भी निरंतर नहीं बना रहता । कभी
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