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शक्ति-जागरण : मूल्य और प्रयोजन
जब से मनुष्य चिंतन करता रहा है तब से वह मूल तत्व को खोजता रहा है । मूल तत्त्व की खोज पांच हजार वर्ष पहले भी चलती थी, पचीस सौ वर्ष पहले भी चलती थी और आज भी चल रही है यह आगे भी अनन्त काल तक चलती रहेगी।
सत्य अनन्त है। अनन्त सत्य को सदा खोजा जा सकता है। पचीस सौ वर्ष पहले की घटना है । एक राजा था। उसका नाम था प्रदेशी। एक महामेधावी मुनि केशीकुमार वहां आए। राजा उनकी उपासना में गया । राजा ने मुनि से कहा-"महाराज ! आत्मा नहीं है। चेतन तत्त्व का अस्तित्व नहीं है । जो शरीर है वही आत्मा है। आत्मा और शरीर भिन्नभिन्न नहीं है । जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है। शरीर प्रत्यक्ष है । उससे अतिरिक्त आत्मा नहीं है। अचेतन ही वास्तविक है। वह भी अनन्त शक्तिशाली होता है । कुछ अचेतन तत्त्वों का योग होता है और चेतना निर्मित हो जाती है। कुछ क्षण ऐसे आते हैं और एक दिन चेतना खंडित हो जाती है, अचेतन रह जाता है । चेतन जैसा कुछ है ही नहीं।" राजा ने एक उदाहरण से अपने मत की पुष्टि करते हुए कहा-"एक बालक है। उसकी शक्ति विकसित नहीं है । वह धनुष पर बाण नहीं चढ़ा सकता। वही बालक जब तरुण हो जाता है, उसके सारे अवयव विकसित हो जाते हैं, वह शक्ति-संपन्न हो जाता है, तब वह सुगमता से धनुष पर बाण चढ़ा सकता है और दूर तक बाण फेंकने में सफल हो जाता है। यदि आत्मा और शरीर भिन्न होते हैं तो यह अन्तर आ नहीं सकता क्योंकि बालक में भी वही आत्मा है और तरुण में भी वही आत्मा है। इसलिए आत्मा और शरीर भिन्न नहीं हैं, एक ही
मुनि केशरीकुमार ने कहा-"राजन् ! तुम्हारी बात में जो सचाई है मैं उसे स्वीकार करता हूं। किन्तु एक बात मैं पूछता चाहता हूं कि धनुष खंडित है, प्रत्यंचा टूटी हुई है, तो क्या कोई उस धनुष्य पर बाण चढ़ा सकेगा? बाण चढ़ाने वाला तरुण है, समर्थ है, शक्तिशाली है, फिर भी वह
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