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ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा
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हो जाता है । साधक पद्मलेश्या पर पहुंच जाता है। पद्मलेश्या का रंग पीला होता है । (आचार्य का ध्यान विशुद्धि चक्र पर किया जाता है। वहां पीले रंग की कल्पना की जाती है । चेतना की यात्रा आगे बढ़ती है, साधक आज्ञाचक्र पर लाल रंग के साथ ध्यान करता है। वहां का रंग है लाल । साधक और आगे बढ़ता है । वह सहस्रार चक्र पर ध्यान करता है । वह शुक्ल ध्यान का स्थान है। यह शुक्ललेश्या का स्थान है। यहां सब कुछ सात्त्विक ही सात्त्विक । प्रकाश ही प्रकाश और कुछ भी नहीं। चित्त की सारी वृत्तियां शांत हो जाती हैं। चित्तवृत्तियों का उभार शांत हो जाता है, कलुषताएं शांत हो जाती हैं। शेष रहती है--निर्मलता।
यह ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा है। धर्मलेश्या प्रवेश-द्वार है। यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मलेश्या में प्रवेश कर देने पर अधर्म लेश्याएं सर्वथा समाप्त हो जाती हैं। वे समाप्त होती हैं, किन्तु एक साथ समाप्त नहीं होती।
हमने अतीत में वृत्तियों का, आस्रवों का इतना संचय कर रखा है कि ऊर्ध्वयात्रा करने पर भी उनका दबाव बराबर पड़ता रहता है। वृत्तियां बार-बार उभरती हैं, दबाव पड़ता है, किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं आता।
काई वृत्ति जागी । स्पंदन हुआ । तरंगें चलीं और कामकेन्द्र के पास " पहुंची। कोई ऊर्जा नहीं मिली तो वापस लौट गयीं। कोई परिणाम नहीं हुआ। बेकार हो गयीं। ऊर्जा मिलने पर वह वृत्ति का काम करती है अन्यथा आती है और बिना फल दिए ही लौट जाती है। जब हमने ऊर्जा का सारा प्रवाह ऊपर की ओर कर दिया, ऊर्जा का भंडार जो नीचे था वह खाली कर दिया और ज्ञानकेन्द्र में भर दिया, फिर कोई भी वृत्ति परिणाम नहीं दे सकती। वृत्तियों की तरंगें आती हैं और लौट जाती हैं। व्यक्ति पर उनका कोई असर नहीं होता। न कामवासना का असर होता है, न ईर्ष्या और घृणा का असर होता है ; न राग-द्वेष का असर होता है। सारी वृत्तियां बेकार । ऐसा लगता है कि वृत्तियां हैं किन्तु उन वृत्तियों में फलने की शक्ति समाप्त हो गयी है।
फलदान निमित्त-सापेक्ष होता है। बिना निमित्त के कोई फल दे ही नहीं सकता। विपाकोदय तब होता है जब कोई निमित्त मिलता है। बिना निमित्त के विपाकोदय नहीं हो सकता । वह व्यर्थ चला जाता है । कोई परिणाम नहीं आता।
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