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किसने कहा मन चंचल है
बोध, दायित्व को लेने का साहस ।
अध्यात्म साधक की भ्रांतियां सबसे पहले टूटती हैं। वह असत्य से दूर और सत्य के निकट होता है। सामान्यतया आंखें बन्द करने का अर्थ होता है-नहीं देखना, सो जाना । बाहरी दुनिया में आंखें बन्द करने के दो ही अर्थ होते हैं-सो जाना या नहीं देखना । अध्यात्म के क्षेत्र में ये अर्थ बदल जाते हैं। ठीक विपरीत हो जाते हैं। साधक की भ्रान्ति टूट जाती है। उसके लिए आंखें बन्द करने का अर्थ होता है-जागना। आंख बन्द करने का अर्थ होता है-भीतर झांकना, भीतर की गहराइयों को देखना । अर्थ बदल जाता है।
जो बाह्य जगत् में जीता है वह मानता है कि सुख बाहर में है। अध्यात्म साधक की यह भ्रान्ति टूट जाती है। वह मानने लगता है कि सुख बाहर नहीं, भीतर है । जिसने कभी अध्यात्म का स्पर्श ही नहीं किया वही बाहर सुख की कल्पना कर सकता है । जिसने एक बार भी अध्यात्म के सुख का स्पर्श कर लिया, उसे बाहर में कभी सुख नहीं लगता । भीतर के सुख की तुलना में बाहर के सारे सुख नगण्य हैं। साधक जब भीतर का थोड़ा मार्ग तय करता है तब उसे लगता है कि जो सुख के स्पंदन यहां हैं, वे बाहर दुर्लभ हैं । जो रंग यहां दीखते हैं, उनका अस्तित्व बाहर है ही नहीं । भीतर में जब सुख के स्पंदनों की अनुभूति होने लगती है तब साधक आत्मविभोर होकर उसी में खो जाता है ? उसका सारा सम्पर्क अध्यात्म से होता है, वाहर से सारे सम्पर्क टूट जाते हैं । अब वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। इतना तन्मय हो जाता है वह उसमें कि वह अपना भान ही भूल जाता है ।
जिस व्यक्ति ने भीतर जाने का प्रयास ही नहीं किया, जिसने भीतरी द्वार का उद्घाटन ही नहीं किया, वह कभी यह अनुभव नहीं कर सकता कि भीतर में क्या कुछ घटित हो रहा है। यह तर्क के द्वारा समझाया नहीं जा सकता। इसका अनुभव ही किया जा सकता है। जो इस मार्ग से नहीं गुजरा है, उसके सामने तर्क व्यर्थ है; मौन श्रेयस्कर है । ___ अध्यात्म साधना की दूसरी परिणति है-भ्रान्तियों का टूट जाता।
चिकित्सा की भांति साधक भी पहले विवेक करता है और फिर प्रत्याख्यान । विवेक का अर्थ है-पृथक् करना और प्रत्याख्यान का अर्थ है-छोड़ना । जब प्रत्याख्यान होता है तब संयम की चेतना जागती है। संयम अर्थात् अपने में रहो। कम बोलो। कम घूमो। प्रवृत्ति कम करो।
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