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व्यक्तित्व का रूपान्तरण : समता
कि यह रहा 'जोड़ा' और यह रहा 'केवल' । यह है ज्ञान-अज्ञान का जोड़ा
और यह रहा केवल ज्ञान । यह रहा सुख और दुःख का जोड़ा और यह रहा केवल सुख । यह रहा शक्ति और शक्ति-हीनता का जोड़ा और यह रही केवल शक्ति । दृष्टि स्पष्ट हो जाती है । कोई भ्रम नहीं रहता, कोई संशय नहीं रहता, कोई विपर्यय नहीं होता ।
यह व्यक्तित्व के रूपान्तरण का पहला चरण है । यदि यह प्राप्त नहीं होता है तो साधना नहीं हो सकती।
___ व्यक्ति के रूपान्तरण का दूसरा चरण है-अनुभव । रूपान्तरण से पूर्व साधक कभी सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का । केवल सुख का अनुभव नहीं करता । जब साधक में चेतना की दूसरी किरण फूटती है तब अनुभव की शक्ति जागती है और उस शक्ति के जागने पर केवल सुख का अनुभव प्रकट हो जाता है, जो पहले कभी प्रकट नहीं हुआ था । साधक को यह ज्ञात भी नहीं था कि 'पर' के योग के बिना भी सुख होता है, हो सकता है, पर-वस्तु, पर-द्रव्य, पर-उपकरण, पर-निमित्त-इनके बिना भी कोई सुख होता है, यह अनुभव से सर्वथा परे था। किन्तु जब अनुभव की चेतना जाग जाती है, संयम की चेतना जाग जाती है तब रूपान्तरण होता है और यह अनुभव में आ जाता है कि बिना किसी सहयोग के, बिना किसी आलंबन के, बिना किसी पदार्थ के भी इतना सुख होता है कि जिसकी तुलना नहीं की जा सकती।
जब अनुभव की शक्ति जाग जाती है तब आलंबन के बिना भी ऐसा सहज-सुख जागृत होता है कि फिर उसे सुख-दुःख के जोड़े में जाने की इच्छा नहीं होती।
दूसरी बात है कि आदमी कर्म का फल भोगता है । पुण्यकर्म का फल भोगता है तब सुखी होता है और पापकर्म का फल भोगता है तब दुःखी होता है। प्रिय पदार्थ मिलता है तब सुख का अनुभव करता है और अप्रिय पदार्थ मिलता है तब दुःख का अनुभव करता है। किन्तु शुद्ध चैतन्य के अनुभव की शक्ति जाग जाने पर व्यक्ति सुख-दुःख को भोगता हुआ भी तटस्थ रहता है। न सखी बनता है और न दुःखी । कुछ भी नहीं बनता। उसकी अनुभव-शक्ति प्रबल हो जाती है। उसे लगता है कि कोई भोगने वाला भोग रहा है, वह मुझसे परे है । दुःख मुझसे परे है।
महावीर ने अनेक कष्ट सहन किए । दूसरे अनेक साधकों ने भी अपार
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