Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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साथ भंडारा की राष्ट्रीय शाला में भी गया। वहां उनका जो भाषण हुआ, उससे मैं यह समझ सका कि काकासाहेब की राष्ट्रीय शिक्षण की कल्पना कितनी व्यापक और विशद है। उसके बाद १९३० में साबरमती में गुजरात विद्यापीठ में काकासाहेब के निमंत्रण पर एक राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन की प्रेरक और मार्गदर्शक विभूति काकासाहेब ही थे। गुजरात विद्यापीठ उस समय अपने पूरे ऐश्वर्य से सुशोमित था। वहां आचार्य कृपालानी थे, किशोरलालभाई थे, नरहरिभाई पारिख थे। और भी कई नामवर शिक्षणशास्त्री थे। उस सम्मेलन का नियमन करते हुए काकासाहेब ने राष्ट्रीय शिक्षण की व्याप्ति और उसके अंगप्रत्यंगों का जो निरूपण और विश्लेषण किया, उससे भी मैं प्रभावित हुआ।
इसके अनन्तर जब बापूजी वर्धा रहने के लिए आये, तब १९३५ में मैं भी नागपुर से वर्धा आ गया और बजाजवाड़ी में रहने लगा। बजाजवाड़ी की केन्द्रीय विभूति तो पुण्यश्लोक जमनालालजी थे। जमनालालजी एक अलौकिक यजमान थे। उनका आतिथ्य हर प्रकार से लोकोत्तर था, क्योंकि उस आतिथ्य में अतिथि और यजमान दोनों के पारस्परिक विकास की योजना थी। उस समय बजाजवाड़ी सचमुच एक जंगम तीर्थराज था। मुझे तो ऐसा प्रतीत हुआ, मानो पुराणों में वर्णित विभूतियों के आधुनिक संस्करणों के बीच आकर रहने का सद्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ। उस प्रतिवेश में एक-एक स्वनाम-धन्य व्यक्तित्व का निवास था। तपोधन श्रीकृष्णदास जाजू थे। योगारूढ़ 'किशोरलालभाई, स्नेहमूर्ति अण्णासाहब सहस्रबुद्धे तथा कार्य-कुशल और निरन्तर दक्ष भाई धोने थे। इन सब पर पूज्य बापूजी के सान्निध्य की आभा थी। कुछ दिन के लिए तो बजाजवाड़ी में आत्मसमर्पण की प्रतिमूर्ति महादेवभाई भी निवास करते थे। बजाजवाड़ी के निकट ही हरिजन-छात्रालय में काकासाहेब का निवास था।
हरिजन और गिरिजनों के लिए काकासाहेब के हृदय में एक विशिष्ट स्थान रहा है। इसलिए उन्होंने हरिजन छात्रालय ही निवास के लिए पसंद किया। उन दिनों मैं काकासाहेब के साथ उनके उपसंपादक के नाते 'सर्वोदय' मासिक में काम करता था। डिक्टेशन के लिए करीब-करीब रोज काकासाहेब के पास जाता था। मझे ऐसा अनुभव हुआ कि उनके पास ज्ञान का अखंडित स्रोत था। कामधेनु की तरह उनकी वाग्धारा अप्रतिहत रूप से प्रवाहित होती रहती थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी विचार नहीं करना पड़ता था। जितने मजमून की जरूरत होती थी, उसको अंदाज से पूरा कर देते थे। लेखक के नाते उनकी इस विशेषता से मैं प्रभावित हुआ।
उसीजमाने का एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। १६३६ या ३७ का वर्ष होगा। श्रीबाबू कामत नीरा के प्रचारक थे । सेवाग्राम से एक कनस्तर-भर नीरा काकासाहेब और उनके साथियों के लिए लाये । दुर्भाग्यवश जितने व्यक्तियों ने नीरा पी, उन पर हैजे का आक्रमण हुआ। काकासाहेब का होमियोपैथी में बहत विश्वास है। उन्होंने नागपुर से सुविख्यात होमियोपैथ भाऊजी दफ्तरी को बुलाया। भाऊजी उपचार करके हार गये। काकासाहेब मरणासन्न स्थिति में पहुंच गए। उस समय उन्हें कुछ पोषण देने की नितान्त आवश्यकता थी। उसके अभाव में मृत्यु अटल थी। भाऊजी दफ्तरी ने काकासाहेब से कहा कि इस अवस्था में अंडे के भीतर के सफेद द्रव्य के सिवा और कोई पोषण नहीं दिया जा सकता। काकासाहेब ने कहा कि यदि कोई दूसरा विकल्प नहीं है तो मृत्यु का स्वागत है। यह प्रसंग काकासाहेब की व्रत-निष्ठा का द्योतक है।
इसी प्रकार का दूसरा प्रसंग याद आता है। उसका आशय बिल्कुल भिन्न है। परन्तु वह प्रसंग भी काकासाहेब की व्रत-निष्ठा का परिचायक है। १९४० का जमाना होगा। हम लोग कराची में थे। शाम को एक गिरजे में काकासाहेब का हिन्दी-हिन्दोस्तानी' विषय में अंग्रेजी में भाषण था। काकासाहेब का नियम यह था कि वे शाम का भोजन ठीक ७ बजे करते थे। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि संयोजक और सभापति के भाषण
२४ / समन्वय के साधक