Book Title: Kaharayana Koso
Author(s): Devbhadracharya, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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देवभद्दसूरि-४ विरइओ कहारयण-1 कोसो॥ सामनगुणाहिगारो। ॥१६॥
सामर्थ्यगुणे अमरदत्तकथानकम् २१॥
विरहियस्स । तइयदिणे य वयस्समुहेण भणाविओ सेट्ठी, जहा-मुद्दारयणं अंगुलीकिसलयाओ गलियमुजाणदेसे, ता जइ तुम्भे अणुजाणह ता तमहं गंतूण पलोएमि त्ति । पिउणा भणियं-एवं करेहि, परं कालक्वेवं विवजेजासि । तओ गओ अमरदत्तो उजाणं, भावसारं वंदिओ साहू, आसीणो समीवे, सुओ सबन्नुधम्मपरमत्थो अचंतमभिरुहओ य । तओ सवायरं भणितो तवस्सी-भयवं! गिहिधम्मप्पयाणेण अणुगिण्हह ममं ति । साहुणा भणियं-भो महायस!
नाउँ जिणिदधम्म सम्म मेय-प्पमेयओ पच्छा । वईतसुद्धभावो विहिवं तं पवजेज जीवा-जीवाइपयत्थगोयरं न हु अबुज्झिउं तरइ । हिंसाईण निविर्ति काउं धम्मेकचित्तो वि
॥ २ ॥ न य जह तह पारद्धा विसुद्धधम्मत्थसाहणी किरिया । होउमलं ता भद्दय ! वीसत्थो सुणसु सस्थत्थं ॥३॥
अमरदत्तेण भणियं-भयवं! एयमेवं, केवलं अम्ह पिया देसवलमग्गाणुगामी धम्मतरं सोउं पिनेच्छइ, न य अम्हारिसं पि सुणतमणुजाण, तभएण अहमेत्थ संखेवओ धम्म घेत्तुमिच्छामि त्ति । मुणिणा भणियं-भद्द! उत्तमर्वत्थुगहणपयद्देहिं न भाइयब्वं जणगाइर्जणाओ, न लज्जियव्वं सामन्नलोगाओ, न खुभियव्वं पच्चूहबूहातो, अयं हि जिणधम्मो महानिहिं व गरुयपुनपब्भारलब्भो परमभुदयहेऊ य, अओ संभवइ एस्थ विग्धकारी, ता होसु एगचित्तो, चयसु पियराइपडिभयं, अणंते हि इह संसारे सरंतजंतुणो अणंता माया-पियराइणो जाया, परं न तेहिंतो वो वि उवलद्धो दुक्खपडियारो, न य एत्तो सेरियावारिपूरहीरमाणेण व तडविडविपालंबो अहवा जलहिगएण व पोओ पत्तो जिणधम्मो तुमए
१ विवर्जयिष्यसि ॥२ बौद्धमार्गानुयायी इत्यर्थः ।। ३ 'बत्थग प्रती ॥ ४ जणओ प्रती ॥ ५ सरिद्वारिपूरहियमाणेन इव ॥
॥१६॥
| उवेहिउँ जुत्तो ति । एवमाइजुत्तिसारवयणपरंपराजियकुवियप्पो अमरदत्तो नीसेससंखोभवग्गमवहाय जहुत्तविहीए जिणसासणं पवनो, नियसामत्थाणुरूवा य पाणवहविरइपमुहा पडिग्गहिया अभिग्गहविसेसा ।
भणिओ य तओ मुणिणा देवाणुप्पिय ! पवनजिणधम्मो । संकाइदोसजालं एत्तो दूरं चंएजाहि संकाइदोसदुट्ठो लद्धं पि जिणिंदधम्ममाणिकं । उज्झइ ततो य दारिहरुंददुहभायणं होइ
॥ २ ॥ जिणधम्मसंगओ दुग्गओ वि परमत्थओ महाइब्भो । एयविउत्तो पुण ईसरो वि दारिद्दियम्भहिओ अत्थो जणणी जणगो बंधू सयणा य भिच्चसंघाओ। काउं तं न समत्था जं जिणधम्मो ददं चिनो ॥४॥ चिरमुबइरिया वि इमे इहलोइयमेव किं पि कुवंति । जिणधम्मो पुण तं नत्थि जं न मणवंछिय कुणइ ॥५॥ किं बहुणा भणिएणं ? एत्तो भई न अन्नमिह किं पि । ता उज्झियसबभओ भेएज धम्म इमं सम्म ॥६॥
'एवं काह'-न्ति भालयलपरामुट्ठमुणिपायवट्ठो 'नित्थारगपारगो होजाहि' ति गुरुणा दिनासीसो जिणधम्मरयणं मुद्दारयणं च घेत्तूण गओ नियघरं । तिकालचेहय-साहुपूयारओ य जहापारद्धपओयणेसु वहिउमारद्धो । उवलद्धसवतव्वुत्तंतो य पिया परं कोवमुबहतो भणिउं पवत्तो-अरे दुसुय! पुवपुरिसपरंपरागयं सुगयधम्ममुज्झिय धम्मतरं कुणतो द8 पि न जुञ्जसि किं पुण संभासिउं ? केवलं दुपुत्तपडिबंधो एवं विडंबेइ ति । अमरदत्तेण भणिय-ताय ! कणगमिव धम्मो सुपरि
१ एबमादियुक्तिसारवचनपरम्पराजितकुविकल्पः अमरदत्तः निश्शेषसंक्षोभवर्गम् अपहाय ॥ २ स्यश्यसि । ३ 'महेभ्यः' महर्द्धिकः ॥ ४ चिरमुपचरिताः ॥ ५ भजे ॥ ६ 'करिष्यामि' इति भालतलपरागृष्टमुनिपादपृष्ठः ।। ७"तबुब्वंतो यं पि प्रती । उपलब्धसर्वतद्वृत्तान्तश्च ।
धर्मोपास्तेः प्राधान्यम्
-%ARANARASAKALACHKAKKARMA

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