Book Title: Kaharayana Koso
Author(s): Devbhadracharya, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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देवभद्दसरिविरहओ कहारयणकोसो ॥ सामनगुणाहिगारो।
दाक्षिण्यगुणे भवदेवकथानकम् २७॥
संपइ एत्थेव परे एस सुयत्तेण तं समुप्पो । लहसि न एत्थं च रई हउ ति काऊण तिक्खुत्तो
॥९ ॥ जत्थ पएसे मरणं उवधाएणं हवेज जंतूण । दिसिवामोहाईया हुँति तर्हि चित्तवापाया
॥१०॥ एवं सिटे मुणिणा अणुसुमरियसबपुषवुत्तो । अच्चंतं भीओ ई गेहं कलिउं मसाणं व
॥११॥ पिउणो अकहिय वत्तं तित्थाई पलोइउं लहु पलाणो । सेरिवारिपूरविहओ तत्थ वि पंचचमणुपत्तो ॥१२॥ एसो पुणो वि एत्थेव मंदिरे ताय ! तुह सुतो जातो । जमवयणं पिव भीमं दिटुं च निहाणमवि एवं ॥१३ ।। ता जह एवं दिह्र तह दिट्ठो च्चिय धुवं कयंतो वि । एवं ठिए य संपह गेहनिवासो धुर्व मच्चू
॥ १४ ॥ अह जाव किं पि तचित्तधीरिमुप्पायणं कुणइ जणगो। ता नीहरिओ गेहाउ झत्ति पत्तो स आरामं ॥ १५॥ दिट्ठो य तेण सो पुवकालिओ संवरो मुणिवरिट्ठो । भणिओ य बंदिऊणं भय ! सरणं तुमं एत्तो ॥१६॥ कुणसु परित्ताणं मे मुणिणा भणियं चयाहि भद ! भयं । गिण्हसु जिणिंददिक्खं दुक्खाण जलंजली देसु ॥ १७ ॥ तो गिहिऊण दिक्खं स महप्पा तेण मुणिवरेण समं । विहरइ वसुहं एगग्गमाणसो धम्मकम्मम्मि ॥१८॥
सुया य तप्पचआगहणवत्ता पिउणा, जाओ चित्तसंतावो। पनविओ य भवदेवेण-ताय ! “गतं मृतं प्रवजितं शोचन्ते न विचक्षणाः।" अओ कीस कुणसि सोगं ? ति । पिउणा भणियं-वच्छ ! तुम्मे दोन्नि वि चक्खुपडितुल्ला मज्झ, तदेगविगमे य कह न सोयामि । भवदेवेण जंपियं-अत्थि एवं, तहावि विश्कतपयरथे निरत्थर्य सोयकरणं । 'एवमेय' ति
१ अकवयित्वा वार्ताम् ॥ २ सरिद्वारिपूरविदतः ॥ ३ बज ॥ ४ "देयवि' सं. ॥
॥१९८॥
॥१९८॥
ERSRKARRESHWARKESAXFRIANORAKHTARIYAKHERA
BHARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRECEREAKERAKARMER
समए वि दु दक्खिन लिंग वुत्तं सुधम्मसिद्धीए । एयविउत्तो लोए वि तूललहुयत्तणमुवेइ
॥४ ॥ दक्खिनसुनहियतो पुत्तो वि हु वेरिउ व पडिहाइ । दक्खिन्नाणुगओ पुण दीसह बंधु व अवरो वि दक्खिन्नमलंकारो दक्खिनमखनवायधणलामो । दक्खिनमुनापर्य दक्खिनं परमवसियरणं दक्खिनमुत्तरोत्तरगुणभवणारोहणेकनिस्सेणी । दक्खिन्नमखिन्ना जे धरंति ते हुंति जयपुजा दक्खिनभावउ चिय सुपुरिसमग्गम्मि जायबहुमायो । पत्तो परमपय पि हु भवदेवो नाम बणियसुओ ॥८॥
तथाहि-अस्थि सुहडावलि व वेणलच्छिविराइया, पंडियमंडलि व सुहासियासयपसोहिया, वसिमभूमि व गयमयरायसावया बंगजणवयावयंसपडितुल्ला विस्सपुरी नाम नयरी । जेहिं च विरोयणकुलकुवलयचंदो रायलच्छिनलिणीकंदो निवारियवेरिरायपयावपसरो समुचियसमयदिबसवावसरो गुणरयणसायरो दिवायरो नाम राया। जीए य खणभंगुरतणं
१ 'समयेऽपि' सिद्धान्तेऽपि ॥ २-हृदयः ॥ ३ 'मखिन्न खं० प्र० । अखन्यवावधनलाभः ॥ ४ जगत्पूज्याः ॥ ५ गुमटावली पणलक्ष्म्याप्रतिज्ञालक्ष्म्या विराजिता, नगरी पुनः बनलक्ष्म्या विराजिता ॥ ६ पण्ठितमण्डली मुभाषितशतप्रशोभिता, नगरी पुनः मुखासिकाशतप्रशोभिता ॥ ७ यणप' सं० ॥ ८ वसिमभूमिः गतभूगराजश्वापदा, नगरी पुनः गतमदरागशापा ॥ ९ यस्यां च नगर्याम् ॥ १० यस्यां च नगर्याम् कोपविकारेवेव 'क्षणभरत्वं' क्षणनासित्वम्, न धर्मव्यवहारेषु । भालतलवर्णनप्रसने एव अलिकशब्दोचारणम्, अलिकशब्दस्य भालसमानार्थकत्वात्, न पुनः राजनीतिनिर्वर्तनप्रसने 'अलीकजल्पनम् असत्यभाषणम्। 'शकुलविनाशः' मत्स्यविनाशनं 'धीवरेष' मात्स्यिकेन्वेष. न पुनः अधिकारिमन्दिरेषु सकुलानाम्-उत्तमवंशजाना स्वकुलानां वा विनाशः ॥

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