Book Title: Kaharayana Koso
Author(s): Devbhadracharya, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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देवभद्दसूरिविरइओ
कहारयणकोसो ॥
सामन्नगुणाहिगारो ।
॥१९५॥
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आणत्तो अवराजिओ, माराविया य घायगा, 'जीवियदायगी' ति सहायरं पूहतो सुरसेहरो, पणामियं च नियरजं ।
तं च अणिच्छंतो पाए पडिऊण रायसुओ विन्नविडं पवत्तो—देव ! ममोवरि पसायं कुणमाणा खमह अवराजियस्स अवराहमिममेकं, अजाणो क्खु एसो, कहमन्त्रहा देवाण वि दुलहाणं देवपायाणमणिडुं काउं ववसेज ? एयाणं पि घायगाणं देउ देवो अभयदानं नियदुकयहयाण कीडप्पायाणं, किमिमिणा मेयमारणेण ? । 'तह' त्ति पडिवनं रना, नियत्तिओ अवराइयरायपुत्तो | 'अहो ! महापुरिसया, अहो ! निरीहत्तणं, अहो ! परोवयारि' त्ति बित्थरिओ सवत्थ सुरसेहरस्स साहुवाओ । अवश्वासरे य राया वेरग्गोवगतो चिंतिउं पवत्तो
हाथी ! निरत्थयं मुद्धबुद्धिणो पुचसंतइनिमित्तं । सुहि-सयण मेत्तहेउं च कह कयस्थिति अप्पा १ न सुति सकजणुरागिणं इमं सवमेव थेवे वि । कञ्जविसंवायम्मि विसंवयंत संपन्न व एकपए चिय एत्थं पैल्हत्थियसवपुबउवयरियं । वट्टंते वि कुटुंबे डंवि व विटंबणा मोहो धण-सयण - जाय-जोवण-विसयवासंग दूसियमणस्स । हा हा ! निरत्थओ कह मह कालो वोलिओ दूरं १ अझ वि एत्थेव चिरं अणुरतोऽहमुज्झियविवेगो । धम्मसहाई हुंतो जइ एस सुओ न एवं मे ता दोसो वि गुणत्तेण परिणओ पुत्तसंतिओ इहि । उज्झियरओ सैओ वणवासं चिय पवज्जामि
॥ १ ॥ ॥२॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥५॥ ॥ ६ ॥
१ मृतमारणेन ॥ २ 'सपत्नमित्र' शत्रुमिव ॥ ३ पर्यस्तित सर्वपूर्वोपकृतम् ॥ ४ 'जीय प्र० धनस्वज नजायायौवन विषयव्यासङ्गदूषितमनसः ||
५ सयः ॥
एवं विभाविऊणं ठविडं सुरसेहरं अणिच्छंतं । कह कह वि नियपयम्मि पडिवो तावसाण वयं
॥ ७ ॥
एवं च सुरसेहरो ससुरसमपियरओ रज्जुनद्धो व पुवपुरिसप्पवाहेण जाव वसुंधरं पालेइ ताव पिउणो पहाणपुरिसा समागया, पत्थावे सिद्धं च तेहिं, जहा— देवस्स हरिसेणस्स वणवासोवगयकत्तविरियमहारायरिसिणो विचतं निसामिऊण तुट्टा मववासवासणा, वुच्छिन्ना विसयर्वच्छा, विहडियं पेमनिगड, उल्लसियं जीवविरियं; तुह समप्पियरजभरो य संपयमेव समीहइ सङ्घविरई, ता कुणह संवाहं, दवावेह पत्थाणढकं, सजावेह वाहणगणं ति । ततो 'तह' ति पडिणिऊण तद्वयण, नियरायपए पट्टिऊण अवराजियं अक्खंडियपयाणएहिं गतो नियनयरं, पवेसिओ महया विभूईए । कयपाय पंचंगपणिवाओ य निवेसितो राहणा उच्छंगे, पुच्छिओ सर्व पुवबुत्तंतं, सुमुहुत्ते निवेसिओ रायपए । सयं च राहणा गुणसेणसूरिणो समी पडिवना सङ्घविरई, विहरिओ अप्पडिबद्ध विहारेण, आराहिऊण य संजमं पत्तो देवलोयसिरिं ति । सुरसेहरो वि राया नियदक्खत्तणेण सुचिरमाणासारं रायसिरिमुवभुंजिऊण एगया परिभाविउं पवत्तो
भवणे भवणे बहुसुकयसालिणो संति नरवईण सुया । नीसेसकलाकुसला य सङ्घसत्थत्थविउणो य तेसिं मज्झे य मए विजयपडाया अणेगहा पत्ता । दक्खत्तगुणेण परं उबजिया रायलच्छी वि केवलमेयं दक्खत्तणं परं कारणं भवदुद्दाणं । ता तं दक्खतं अणुसरामि न पडेमि जेण भवे इय भाविउ स घीमं रजे आरोविडं नियगपुत्तं । पवअं पडिवन्नो दिवं पत्तो य देवसिरिं एवं संसारियकअसाहगं जह वयंति दक्खत्तं । तह धम्मकजविसयं पितं धुवं परमपयजणगं
॥ १ ॥
॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 118 11
॥ ५ ॥ अपि च
+6446
दक्षत्वे सुरशेखरराजपुत्रकथानकम् २६ ।
॥१९५॥
वृक्षत्वस्य
फलमू

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