Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भान्ति यत्र भुवो ग्राम्याः सर्वतः खल संकुलाः । समृद्धिभिस्तयाप्युच्चैः
इस अनंग देश के अनेकों ग्राम हैं। इनकी श्री भी अनोखी है । चारों ओर हरियाली, धान्य भरे खांलयान है। इनको समृद्धि सज्जनों के प्रानन्द की हेतु हैं । अभिप्राय यह है कि ग्रामीण जन गांवों में गोधनादि से समृद्धि प्राप्त कर सज्जनों के आनन्द के साधन हैं। सरलता से उच्च आशय धारण करते हैं ।। १० ।।
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सज्जनाभन्द हेतथः ॥ १० ॥
निगमानां न चान्योन्यं यस्मिन् सीमावगम्यते । निष्पन्नैः सर्वत: सर्व सस्यजस्तै निरन्तरं ।। ११ ।।
यहाँ के क्षेत्र एक-दूसरे के प्रति सन्निकट हैं। सभी हरे-भरे और फलेफले हैं, किस की सीमा कहाँ से कहाँ तक है यह प्रतीत ही नहीं होता है । सर्वत्र सदा विविध धान्य निष्पन्न उत्पन्न होते रहते हैं। किसी को किसी प्रकार का प्रभाव नहीं, फिर सीमा का प्रयोजन क्या ? ॥। ११ ॥
सच्छाया: प्रोनता पत्र मार्गस्थाश्व विजातिभिः । सेव्यन्ते पावपा थुक्त मेतन्ननु कुजम्ममाम् ।। १२ ।।
यहाँ के मार्गों में सघन छायादार विशाल और उन्नत वृक्ष हैं। सभी पथिकों द्वारा उनका उपभोग किया जाता है। इससे प्रतीत होता है कि वृक्षों के पाप कर्म का यह फल है। क्योंकि उत्तम वस्तु सर्व सेव्य नहीं होती ॥ १२ ॥
वन्याकर समुत्थानं दधाना बहुधा पनं । जाता वसुमती पत्र यथार्थय
राजते दारिद्रय
४ ]
यहाँ खानों की भी कमी नहीं है। हीरा, माणिक, पता आदि की अनेकों खानें हैं इनसे प्रतीत होता है कि पृथ्वी का सार्थक नाम वसुन्धरा या वसुधा है । 'वसु' का अर्थ धन होता है। इसे जो धारण करे वह वसुधा है । इस देश में सोने-चांदी, हीरा आदि की खानों को देखकर सहज ही 'वसुधा' सार्थक नाम उपस्थित हो जाता है ॥ १३ ॥
समंततः ॥ १३ ॥
जनता यत्र जिनपरता सदा । भीतीतिभिरसंगता ॥ १४ ॥
दुर्नयतिक