Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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मिथ्याग्रहाहिनादष्ठं सद्धर्मामृत पानतः । प्राश्वासयन्ति विश्व येतान स्तुवे यतिनायकान् ।। ३ ॥
अनादि मिथ्यत्व रूपी सर्प से डंसे संसारी प्राणी त्रसित हैं । यतियों। में श्रेष्ठ प्राचार्यादि अपने सद्धर्मामृत का पान करा कर उन्हें स्वास्थ्य प्रदान करते हैं अर्थात् मिथ्यात्वगरल से उत्पन भ्रम बुद्धि से रक्षा करते ! हैं, उन यतिपुंगवों की मैं (श्री गुरगभद्र स्वामी) स्तुति करता हूँ ॥ ३ ।।।
विशेषार्थ :-इस श्लोक में प्राचार्य श्री ने श्रेष्ठ जिनेन्द्र के लघु नन्दनों-मुनिराजों की स्तुति रूप से प्रशंसा की है। मोह रूपी सर्प के भयंकर विष का निवारण करने में दिगम्बर साधु ही समर्थ हैं। वे स्वयं वान्त मोह होकर संसार के भव्य प्राणियों को सद्धर्मामृत का पान करा कर उन्हें मोक्ष मार्ग पर प्रारूद करते हैं।
मालिन्यो छोतयो हेतू असत्सन्तो स्वभावतः । गुणानां न सयो निन्टा स्तुति तेन तनो घडप !! ४ । ।
दुर्जन स्वभाव से गुणों का अपवाद करते हैं और सत्पुरुष उनके (गुणों का) प्रकाशन करते हैं । अत: मैं (कर्ता) उनकी निन्दा या प्रशंसा नहीं करता हूं ।।४।।
विशेषार्थ :-इस पद्य में प्राचार्य श्री ने माध्यस्थ भावना का सुन्दर चित्रण किया है, साथ ही साधु स्वभाव का अनुपम प्रदर्शन भी। दुर्जन और सज्जन अपने-अपने स्वभावानुसार गुण और गुरगी की निन्दा व प्रशंसा करते ही हैं उनके विषय की चर्चा करना व्यर्थ है । अपने कार्य की सिद्धि मैं दत्तचित्त होना ही साधु का कर्तव्य है।
मनो मम चतुर्वर्ग मार्ग मुक्ता फलोज्ज्वलाम् । मिमवत्त कथाहार लतिका कर्तु मीहते ॥ ५ ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ प्रत्यन्त उज्ज्वल मुक्ताफल-मोतियों के समान हैं। इनको गूंथ कर जिनदत्त कथा रूपी हार निर्मित करने को मेरा मन चाहता है ॥५॥
विशेषार्थ :-ग्रन्थ कर्ता ने अपने कर्तव्य का निर्देश किया है । "यारों पुरुषार्थों की सिद्धि एक भव्यारमा किस प्रकार कर सकता है।" इस युक्ति को जिनदत्त के चरित्र वर्णन द्वारा निरूपण करने की प्रतिज्ञा की है।