Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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कथारम्भ
प्रथास्ति भरत क्षेत्रे जम्ब द्वीपस्य दक्षिणे। भीमानंगामिषो देशो वेवावास वापर: ।। ६ ।।
जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में भरत क्षेत्र है । उस क्षेत्र में एक मानङ्ग नाम का देश है । यह अपनी सुषमा से अमरलोक के समान था।' अर्थात् ऐसा प्रतीत होता था मानों दूसरा स्वर्गलोक ही हो ।। ६ ।।
क्रीका मसामरा यन्त्र कोपयन्ति स्वकामिनीः । उद्यानेषु बिलासावध वनपाल विलोकिन: ।। ७ ।।
इस देश में प्रति रमणीय उद्यान हैं। यहां मनुष्य रति प्रादि कोडामों में उन्मत्त हुए अपनी कामनियों के प्रति कोप प्रदर्शित करते हैं। मन पालक इन विलासियों को निरंतर विलोकते हैं। अर्थात् यहां के | बगीचों में सतत् वन-विहार करने के लिए राजा महाराजादि माते रहते हैं ।। ७॥
सविभ्रमाः सपपारच सर्व सेव्य पयोपरा: । कुटिला या राजन्त नद्यः पण्यागना इव ।। ८ ।।
पयोधर-मेघों को विभ्रम के साथ सेवन करते पे अर्थात् विलास पूर्वक प्रानन्द क्रीडा करते हुए इस देश के पुरुष अपनी प्रियानों के साथ बादलों की घटानों का प्रानन्द लेते हैं । दुसरे अर्थ में पीनस्तनी स्त्रियों के साथ रमण करते थे । यहाँ की नदियाँ टेडी-मेडी बहती हुयी वेश्यामों के समान सुन्दर प्रतीत होती हैं ।। ८ ।।
पन्यानं पथिका कामं नामन्ति समुत्सुकरः । अपि अद्गोपिका कान्त रुपासताः पदे पदे ।।६॥
इस देश में पथिक जन इच्छानुसार नहीं चल सकते हैं-कारण कि यहां यत्र तत्र सर्वत्र सुमनोरम दृश्य हैं प्रतः पग-पग पर उस रूप राशि में पासक्त हो खडे रह जाते हैं। जहां-तहाँ सुन्दर गोपिकाएं विविध प्रकार हाव भाव, शृगार एवं नृत्य गीत वादिष का प्रदर्शन करती है उन्हीं में उलझ कर अपने कार्य को भूल जाते हैं ॥९॥
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