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की कथा का प्रणयन आचार्य सुमतिसूरि ने किया है। कथा अत्यन्त रसद है।
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महेश्वसूरि ने ज्ञानपंचमी कथा में श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य बताने के लिए रस कथाओं का सृजन किया है। इन कथाओं में प्रथम जयसेन कहा और अन्तिम भविसयत्त कहा महत्त्वपूर्ण है नर्मदा सुन्दरी के रचयिता महेन्द्रसूरि हैं। 'प्राकृत कथा संग्रह' में बारह कथाओं का सुंदर संकलन हुआ है। लेखक का नाम अज्ञात है सिरिवालका का संकलन रत्नशेखर सूरि ने किया है। संकलन समय से. १४२८ है । आधुनिक ४३ उपन्यास के सभी गुण प्रस्तुत कथानक में विद्यमान हैं।
जिनहरि ने विक्रम संवत् १४८७ में 'रक्णसेहर निवकहा' अर्थात् रत्नशेखर नृपति कथा का प्रणयन किया। जायसी के 'पद्मावत' की कथा का मूल प्रस्तुत कथा है। डॉ. नेमीचन्द्र जैन शास्त्री इस कथा को 'पद्मावत' का पूर्वरूप स्वीकारते हैं।
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महिवाल कथा के रचयिता वीरदेव गणि हैं। इस ग्रंथ की प्रशस्ति से अवगत होता है कि देवभद्रसूरि चन्द्रगुच्छ में हुए थे। इनके शिष्य सिद्धसेनसूरि और सिद्धसेनसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि थे। वीरदेवगणि मुनिचन्द्र के शिष्य थे । ४५ विण्टरनित्स ने एक संस्कृत 'महिपालचरित' का भी उल्लेख किया है जिसके रचयिता चरित्र सुन्दर बतलाये हैं।
उक्त प्रमुख कथा रचनाओं के अतिरिक्त संघ तिलक सूरि द्वारा विरचित आरामसोहा कथा, पंडिअघणवाल कहा, पुण्यचूल कहा, आरोग्यदुजकहा, रोहगुत्तकहा, वज्जकण्णनिवकहा, सुहजकहा और मल्लवादी कहा, भदवाहुकहा, पादलिप्ताचार्य कहा, सिद्धसेन दिवाकर कहा, नागयत्र कहा, बाह्याभ्यन्तर कामिनी कथा, मेतार्य मुनिकथा, द्रवदंत कथा, पद्मशेखर कथा, संग्रामशूर कथा, चन्द्रलेखा कथा एवं नरसुन्दर कथा आदि बीस कथाएँ उपलब्ध हैं। देवचन्द्रसूरिका कालिकाचार्य कथानक एवं अज्ञातनामक कवि की मलया सुन्दरी कथा विस्तृत कथाएँ हैं। प्राकृत कथा साहित्य में कुछ ऐसी कथा कृतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनका लक्ष्य कथा को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करना न होकर जैन मुनियों द्वारा पाठकों को उपदेश प्रदान करना रहा है। इस प्रकार की उपदेशप्रद कथाओं में धर्मदास गणि की उपदेशमाला, जयसिंह सूरि की धर्मोपदेशमाला, जयकीर्ति की शीलोपदेशमाला, विजयसिंहसूरि की मुक्त सुन्दरी, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की उपदेशमाला, साहड की विवेक मञ्जरी, मुनिसुन्दर सूरि का उपदेशरत्नाकर, शुभवर्धन गणि की वर्धमान देशना एवं सोमविपल की दशद्दष्टान्त गीता आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। उपदेश कथाओं में उपदेश की प्रधानता है। अन्य विषय गौण हैं।
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अपभ्रंश जैन कथा साहित्य
अपभ्रंश कथाकाव्य के वस्तुतत्त्व के विकास और अलंकरण की कुछ अपनी विशेषताएँ है ये सभी कथा काव्यों में समानरूप से उपलब्ध हैं। अपभ्रंश कथा- काव्य के निर्माता एक विशेष युग और दृष्टि से प्रभावित थे। कथा कहकर कुतूहल जगाना या मात्र मनोविनोद करना इनका लक्ष्य नहीं था। वे ऐसे कथा साहित्य की रचना करना चाहते थे, जिससे काव्यकला के विधान और उद्देश्य की पूर्ति के साथ नैतिकता और धार्मिक उद्देश्य भी प्रतिफलित हो जाएं। कोरे साहित्यकारों या धर्मवादियों की अपेक्षा इनका दृष्टिकोण कुछ उदार और लोककल्याणकारी था। कथा साहित्य की यह विरासत इन्हें परम्परा
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श्रीमद् जयंतसेनमरि अभिनंदन ग्रंथ / वाचना
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हमा
से तो प्राप्त थी। इसमें प्रयुक्त कथाओं के सूत्र भारतीय पुराणों से मिलते-जुलते हैं अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य को कथा काल कहना अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसमें कथा की मुख्यता रहती है चाहे कथा पौराणिक हो या काल्पनिक । जैन अपभ्रंश की प्रायः समस्त प्रबन्धात्मक कथाकृतियाँ पद्यबद्ध हैं और प्रायः सबके चरित नायक या तो पौराणिक है या जैनधर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी भाषा, छंद, कवित्व, सभी दृष्टियों से कथा कृतियाँ अपभ्रंश साहित्य का उत्कृष्ट और महनीय रूप प्रदर्शित करती है ।
अप्रभंश कथा साहित्य का सूत्रपात स्वयंभू से होता है उनका 'पउमचरिउ' रामकथा का जैनरूप दर्शाता है। यह संस्कृत के 'पद्मपुराण' (रविषेणकृत) और प्राकृत के विमलसूरिकृत 'पठमचरित' से उत्प्रेरित है। स्वयंभू ने इसमें अपनी मौलिक घटनाओं को भी निबद्ध किया है।
पुष्पदंत प्रणीत 'तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकारु' अर्थात् त्रिषष्टि शलाका पुरुष गुणालंकार 'महापुराण' ही संज्ञा से विख्यात है। आदि पुराण और उत्तरपुराण इन दो खण्डों में त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित शब्दित हैं। इसका श्लोक परिमाण बीस हजार है। पुष्पदंत की दूसरी कृति 'णायकुमारचरित' में नौ सन्धियाँ हैं। 'जसरहचरिउ' पुष्पदंत की चार संधियों की रचना है जो मुनि यशोधर की जीवन कथा को प्रस्तुत करती है।
तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरित्र को पद्मकीर्ति ने अपनीकृति 'पासचरित' में उनके पूर्वभवों (जन्मों) की कथा के साथ चित्रित किया है। ४९ धवल की विशाल अपभ्रंशकृति 'रिट्ठणेमिचरिउ' अर्थात् 'हरिवंशपुराण' में एक सो बाइस संधियाँ है। ५०
अपभ्रंश के मध्यकालीन अर्थात् दसवीं शती के धनपाल विरचित कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' आध्यात्मिक चरितकाव्य है। डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' इस कथा काव्य में धार्मिक बोझिलता न मानते हुए लैकिक जीवन के एक नहीं अनेक चित्र गुम्फित होना स्वीकारते हैं। इस कृति को 'सुयपंचमीकहा' अर्थात् श्रुतपंचमी कथा भी कहते हैं। इसमें ज्ञानपंचमी के फल-वर्णन स्वरूप भविसयत्त की कथा बाइस संधियों में है। कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्रभक्ति से अनुप्राणित है । ५२
वीर कवि की अपभ्रंश कृति 'जंबूसामिचरिउ' में जैनधर्म के अंतिम केवली जंबूस्वामी का चरित ग्यारह सन्धियों में कहा गया है। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है । वीर कवि की इस कृति में ऐतिहासिक महापुरुष जंबूस्वामी के पूर्वभवों तथा उनके विचारों और युद्धों का वर्णन अभिव्यज्जित है। इसमें समाविष्ट अन्तर्कथाएँ मुख्यकथावस्तु के विकास में सहायक बन पड़ी हैं । ५३
पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र के महत्त्व को दर्शाया है विक्रम संवत ११०० के प्रणेता नयनंदी ने अपनी बारह संधियों वाली रचना 'मुदंसणचरिउ' में। सुदर्शन का चरित शीलमाहात्म्य के लिए जैनजगत में विख्यात है । ५४ ग्यारहवीं शती के दिगम्बर मुनि कनकामर की कृति ‘करकण्डचरिउ’ दस संधियों की रचना है। जिसमें करकंडु की मुख्य कथा के साथ साथ नौ अवांतर कथाएँ हैं जो जैनधर्म के सदाचारमय जीवन को तथा राजा को नीति की शिक्षा देने के लिए वर्णित हैं। कथा के प्रसार और वर्णन में व्यापकता है। इस कृति की कथा में लोक कथाओं की झलक द्रष्टव्य है ।"
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विषय विलासी जीव को, नहीं धर्म का राग जयन्तसेन पतंग को, दीपक से अनुराग ॥
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