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कहें जिण सासणे केम थिय कह राघव-केरी ॥
वह आगे व्यंग्य करता है -
जइ राम हों तिहुअणु उवरें माइ । तो रावणु कहि तय जाइ। 'मानस' में भी पार्वती शंका करती है -
जो नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि- विरह मति मोरि । देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ भरद्वाज की जिज्ञासा भी इसी प्रकार है -
प्रभु सोइ राम कि अमर कोइ जाहि जगत त्रिपुरारि । सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह करहु विवेक विचारि ।।
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'पउम चरिउ' में श्रेणिक की शंका के निवारण हेतु गणधर गौतम राम कथा का उद्भव इस प्रकार निरूपित करते हैं
बद्धमाण मुह कुहर विणिग्गय । राम कहा णह एह कमागय ॥ एह राम कह सरि सोहन्ती । गणहर देवहि विवहन्ती ॥ पच्छइ हन्दमूइ-आयरिए । पुण धम्मेण गुणा लंकरिए ॥
पुणु पहवे संसारा राएं । कित्ति हरेण अणुत्तर बाएं ।
पुणु रविषेणायरि पसाएं । बुद्धि ए अवगाहिय कराएं || 'मानस' में राम कथा की यह परिपाटी निरूपित हैं - संभु कीन्ह यह चरित सुहावा बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा ॥ सोइ सिव कागमुलुंडहिं दीन्हा । राम भगति अधिकारी चीन्हा || तेहि सन जागवनिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥ में मुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत । समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउ अचेत ॥
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स्वयंभू के आत्मनिवेदन और तुलसी के आत्मनिवेदन में काफी भावसादश्य हैं। 'पउम चरिउ' में स्वयंभू कहते हैं बुह-यण संयमु पहं विण्णवह महु सरिसउ अण्ण पाहि कुमइ ॥ वाय कवाइ ण जाणि पउ उ विधि-सुत्त वक्खाणियउ ॥ णा णिसुणिन पंच महाय कव्वु । णउ मरहु ण लक्खणु कुंदु सब्बु ।। उ वुज्झिउ पिंगल-पच्छारू । णउ भामह दंडीय लंकारू ॥
वे वे साय तो वि णउ परिह रमि । वरि रयडा वुत्तु क्षब्बु करमि ॥ सामाणमास छुड मा विहडउ हुदु आगम- जुत्ति किंपि धडउ ॥ कुड्डु होंति सु हासिय वयणाई । गामेल्ल-मास परिहरणाई || एहु सज्जण लोमहु किउ विणउ । ज अबुहु पदरिसिउ अप्पणउ ॥ जं एवंबि रूसाइ कोवि खलु । तहो हत्युत्थल्लिड लेउ छलु ॥ पिसुनें कि अबूमत्थिएण, जसु कोवि ण रूच्चइ ।
किं छण-इन्दु मरुगाहे, ण कंपंतु विभुच्चइ ॥
तुलसी ने भी अपनी लघुता प्रदर्शित की है.
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें विनय करउं सब पाहीं ।।
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श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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करन चहउं रघुपति गुनगाहा । लघुमति मोरि चरित अवगाहा ।। डूब न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ।। मति अति नीच ऊंचि रुचि आछी । चहिअ अमिख जग जुरइ न काछी ॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई सुनिहहिं बालवचन मन लाई ॥ जो बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता । हंसहहिं कूर कुटिल कुविचारी । जे पर दूषन भूषन धारी ॥
भाव भेद रख मेव अपारा। कवित दोष गुन विविध प्रकारा । कवित विवेक एक नहिं मोरे । सत्य कहउं लिखि कागद कोरे ।। "भविरायसकहा' की निम्न पंक्तियों में भी बड़ी समानता है -
सुणिमित्तं जा अई तासु ताम । गय पथहिणत्ति उड्डेवि साम ॥ वायंगि सुत्ति सहसहइ वाउ । पिय मेलावह कुलकुल काउ ॥ बाम किलकिंचित सावरण वाहिणउ अंगु नरिसिङ मए ॥ दाहिण लोयणु फंदह सुवाहु । णं पणइ एण मग्गेण जाहु ॥ तुलसी ने भी उसी भाव की सम्पुष्टि की है।
दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल वरस सब काहुन पावा । सानुकूल वह त्रिविध बयारी । सघट सबाल पाव वर नारी ॥ लोया फिरिफिरि दरस दिखावा। सुरभी सम्मुख शिशुहि आवा ।। मृगमाला दाहिन दिशि आई मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई || निष्कर्ष सूत्र :
'पउमचरिउ' जैन संस्कृति से ओतप्रोत राम-काव्य है । उसने 'मानस' को यत्र-तत्र प्रभावित किया है। स्वयंभू ओज के कवि थे। उनकी सबसे बड़ी देन सीता का चरित्र चित्रण है। तुलसी ने समूचे भारतीय मानस को प्रभावित किया है। वे अपने कृतित्व तथा साहित्य-स्रोतों के विषय में बड़े ईमानदार थे। हिन्दी का युग आते-आते उनका कोई नामलेवा नहीं रह गया था। किसी ने उनका स्तवन नहीं किया। इसका कारण था कि हिन्दी में आभारप्रदर्शन की परिपाटी समाप्त हो गयी थी। इसके एकमेव अपवाद महाकवि गोस्वामी तुलसीदास थे जिन्होंने अपने पूर्व प्रमुख कवियों का तर्पण किया है । अन्य किसी कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण नहीं किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'साकेत' में रामकाव्य के गायकों तथा पुरस्कर्ताओं का सादर नामोल्लेख किया है ।
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'पउम चरिउ' और 'रामचरित मानस' भारतीय साहित्य की वह अनूठी, अप्रतिम तथा प्रौढ़ उपलब्धियां हैं जिन्होंने रामकथा तथा रामकाव्य को युगांतर प्रदान किया है ।
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प्रेमी आत्मजा अंगना; मित्र बंधु परिवार । जयन्तसेन सभी साथ रह जलकमल विचार ॥ www.jainelibrary.org