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वाला अहिंसक हो ही नहीं सकता । जो आंतरिक समानता को नहीं सत्य याने 'अस्ति' - जो है, उसको बताना पर वह हितकारी देखता वह अपने को ऊँचा व दूसरे को नीचा या दूसरे को ऊँचा हो तथा दूसरों को भी प्रिय हो । गीता में भी कहा गया है - तथा स्वयं को नीचा समझता है । यही अहम् या हीन भाव ही
"अनुढेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्, विषमता पैदा करता है और जहाँ विषमता है या विषमता का भाव है वहाँ हिंसा को कोई रोक नहीं सकता।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्चते ।" र अहिंसा को साधने के लिए उन्होंने सम-भाव की साधना
अर्थात् ऐसा वाक्य बोलना चाहिये जो दूसरों के चित्त में आवश्यक बताया । एकाग्रता के अभ्यास के द्वारा मन को वश में
उद्वेग उत्पन्न न करें, जो सत्य, प्रिय व हितकर हो तथा जो वेद करके सिद्धांतगत स्वरूपगत मानस-स्तरीय समता को साधा जा
शास्त्रों के अनुकूल हो । यही वाणी का तप है । यही बात भगवान सकता है । समता अर्थात् सम-भाव, न राग न द्वेष, न आकर्षण न
महावीर ने भी कहीविकर्षण, न इधर झुकावा न उधर | - यही तो समन्वय है और तहेव काणं काणोक्ति, पंडगं पंडगेति वा, जिस व्यक्ति या समाज का अन्तःकरण समता से स्नात हो जाता है
वाहिय वा वि रोगीत्ति, तेणं चोरेत्ति नो' वए। उसके व्यवहार में विषमता नहीं होती।
(दशवैकालिक सूत्र) इतना ही नहीं उन्होंने इस अहिंसा अणुव्रत के पालन में आने वाले अतिचारों जैसे - परिजनों व पशुओं के प्रति क्रूरता बरतना,
अर्थात् काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी उनका वध - बन्धन करना, अतिभार लादना, चाबुक-बेंत आदि से
तथा चोर को चोर न कहें । किसी को पीड़ा पहुँचाना हिंसा है पीटना, भूखे रखना, नाक-कान छेदना आदि अनेकों अतिचारों से
इसीलिए भ. महावीर ने वाणी-संयम पर बल दिया । यथासंभव बचे रहने के लिए कहा ।
सत्य किसी के द्वारा अधिकृत नहीं, उसकी अभिव्यक्ति पर भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा विश्व कल्याण के
सभी का अधिकार है । उन्होंने कहा कि - लिए अद्वितीय थाती है, सुख शांति की जननी है तथा शस्त्रास्त्रों "सच्चं जसस्तं मूलं, सच्चं विस्सास कारणं, की होड़ में लगे विश्व की रक्षा करने वाली अलौकिक शक्ति है।
परमं सच्चं सग्ग-द्वारं, सच्चं सिद्दीइ सोपाणं ॥" व्यवहार में समन्वयवाद
अर्थात् सत्य निश्चय ही यश प्राप्ति का मूल है, सत्य ही इस प्रकार आचरण के लिए अहिंसा को और अहिंसा के लिए विश्वास उत्पन्न कराने में कारण भूत तत्त्व है, सत्य ही स्वर्ग का समता को साधना ही व्यक्तिगत आचरण का समन्वयवाद था । श्रेष्ठ द्वार है तथा सत्य ही मोक्ष प्राप्ति के लिए सुन्दर सीढ़ियों के व्यवहार में इस साधना के लिए २ बातें अनिवार्य बताई
समान है। (१) साधन शुद्धि का विवेक
_जन्म से ही आत्मा की प्रवृत्ति सत्य की होती है - बच्चा झूठ (२) व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास
बोलना नहीं जानता-उसे झूठ बोलना सिखाया जाता है | ज्यों ज्यों
उम्र और दायित्व बढ़ते हैं - कमजोरियाँ बढ़ती है वैसे-वैसे असत्य साध्य से साधन की महत्ता कम नहीं अतः पवित्र साध्य की
की ओर उन्मुखता बढ़ती है पर असत्य भाषण भला कौन पसन्द साधना के लिए साधनों की पवित्रता भी नितान्त आवश्यक है ।
करता है ? कागज की फूलों की सच्चाई कहीं छुपती भी है ? महावीर की यही साधन शुचिता महात्मा गान्धी के मानस पर विद्यमान थी जिसके बूते पर - सत्याग्रह व अहिंसक आन्दोलन के
जो कठिनाइयाँ सत्य भाषण में आती है वे हमारी आत्मा की जरिये ब्रिटिश जैसी साम्राज्यवादी कौम ने भी हिन्दुस्तान को
बुराइयाँ है और सत्य भाषण से ही वे समाप्त भी होंगी । भ. आजादी दी।
महावीर ने कहा कि यदि मनुष्य सदैव सत्य ही बोलने का संकल्प
ले ले तो वह स्वयं भी सुखी रह सकता है तथा सबको भी सुखी व्यवहारिक जीवन में भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
बना सकता है । वास्तव में यह छल प्रपंचवाला संसार यदि महावीर व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास आवश्यक है ऐसा उनका
के सत्य को अपनाले तो विश्वशांति और कल्याण की दिशा में अनुभूत प्रयोग एवं मत था । मन, वचन एवं काया से कर्म से
उन्मुख हो सकता है। बुराइयों को रोकना ही अहिंसा है - धर्म है । वाणी पर संयम, प्रवत्ति पर संयम तथा शरीर पर संयम के द्वारा व्यक्तिगत जीवन
परन्तु सत्य की दिशा में भी समन्वय की ओर कदम बढ़ाते में, सामाजिक जीवन में तथा आध्यात्मिक उपलब्धि, मक्तिमंजिल हुए उन्हान कहा, - की ओर आसानी से बढ़ा जा सकता है।
"महुत दुक्खा उद्ववंति कंटया, वाणी पर संयम -
अओमया ते वि त ओ सुउद्धरा । भगवान महावीर की अहिंसा सर्व जीव हिताय थी, एक वाया दुरुत्राणि दुरूद्धराणि, समन्वित आचार संहिता थी तथा विश्वमैत्री और विश्वशांति की
वेराणु बन्धीणि महब्भयाणि । रूप रेखा थी वहीं धर्म निरपेक्षता इस अहिंसा का आधार थी तथा सत्यदर्शन इसका सम्बल ।
काँटा या कील चुभ जाने पर कुछ देर ही दुःख पहुँचाती है किन्तु
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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छुरा भोंकना पीठ में, कायर का है काम । जयन्तसेन पराक्रमी स्पष्ट बदत विश्राम ॥
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