Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 182
________________ का अर्थ अच्छे कथन से है । सूक्ति का प्रधान उद्देश्य आदेश है । नित्यप्रति के व्यवहार में जिन बातों से लाभ उठाया जा सकता है, उन्हीं बातों को सूक्तिकार एक मार्मिक और हृदयग्राही ढंग से कहता है, जिससे जन-साधारण के मन में चुभ जाती है।" श्रृंगार सतसई में चमत्कार विधायिनी प्रवृत्तिकी अपेक्षा भाव व्यंजना या रस परिपाक को प्रधानता दी जाती है । ऐसी सतसइयों में श्रृंगार के संयोग वियोग दोनों पक्षों की व्यंजना होने के साथ साथ श्रृंगार के विविध पक्षों का आलम्बन उद्दीपनादि का विस्तृत वर्णन भी रहता है । इसलिए श्रृंगार सतसई सूक्ति सतसई से अधिक लोकप्रिय होती है। हिन्दी में सूक्ति सतसई के अन्तर्गत तीन सतसइयों की गणना की जा सकती है - (१) तुलसी-सतसई । (२) रहीम - सतसई (३) वृन्द- सतसई । तुलसी सतसई में गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्ति एवं नीति विषयक दोहे संकलित हैं। सात सर्गों में विभाजित सतसई में भक्ति, उपासना, राम भजन, आत्मबोध, कर्म व ज्ञान सिद्धांत और राजनीतिका स्वतंत्र विवेचन किया गया है। कुछ दोहे उपदेश प्रधान हैं तो कुछ सुन्दर और मर्मस्पर्शी भी प्राप्त होते हैं। यथा 'बरखत हरखत लोग सब, करखत लखें न कोय । तुलसी भूपति भानुसम, प्रजा भाग बस होय ।।' रहीम सतसई में लौकिक जीवन के विविध पक्षोंपर कवि की मार्मिक सूक्तियाँ मिलती हैं। वृन्द सतसई औरंगजेब के दरबारी कवि वृन्द की सतसई विशिष्ट विदग्धतापूर्ण सूक्तियों का संग्रह है । सरल मुहावरेदार भाषा, दृष्टांत सहित जीवनानुभव की अभिव्यंजना इस सतसई की विशेषता है। उदाहरण दृष्टव्य है फिर न हवे है कपट सो जो कीजे व्यापार । जैसे हाँडी काठ की चदै ना दूजी बार ॥' हिन्दी की श्रृंगार सतसइयों में 'बिहारी सतसई' 'मतिरामसतसई' 'रसनिधि सतसई' 'राम- सतसई' तथा 'विक्रम-सतसई' की गणना होती है । विद्वानों की राय में हिंदी में श्रृंगार सतसई परम्परा का सूत्रपात बिहारी सतसई से होता है । आचार्य डा. डॉ. दिलीप पटेल एम.ए., पी.एच.डी., हिंदी शिक्षण निष्णात fra sted - STUDIS कई रचनाओं का पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन । सफल शिक्षक, कुशल लेखक । छात्रों में विशेष लोकप्रियता । सम्प्रति प्राध्यापक, कलाविज्ञान-वाणिज्य महाविद्यालय शहादा (महाराष्ट्र) है Pfle श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Line Wh Jain Education International 5615 T (८८) हजारीप्रसाद द्विवेदीजी अपने 'हिन्दी साहित्य' में हिन्दी की श्रृंगार सतसई परम्परा का प्रारम्भ बिहारी सतसई से मानते हैं। महाकवि बिहारी की 'बिहारी सतसई' महत्वपूर्ण कृति है । आचार्य रामचंद्र शुक्लजी का बिहारी सतसई के संबंध में निम्नलिखित मंतव्य दृष्टव्य है "श्रृंगार रसके ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है ।" बिहारी सतसई की महत्ता निम्न दोहे से स्वयं प्रमाणित हो जाती है सतसइया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर । देखन में छोटे बर्गे, घाव करे गम्भीर ॥ बिहारी सतसई मुख्यरूप से श्रृंगार की रचना है जिसमें कवि ने श्रृंगार के विविध पक्षों संयोग, वियोग, प्रेमीप्रेमिकाओं की क्रीडाएँ, नखशिख, वयःसंधि, प्रेमोदय का विशद वर्णन किया है । कि प्रेम के जितने खिलवाड़ हो सकते हैं उनका विस्तृत चित्रण "बिहारी सतसई' में देखा जा सकता है संयोग की क्रीडा दृष्टव्य है - 'बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय । सोह करे भौंहनि हँसे, देन कहै नटि जाय ।।' संयोग- पक्ष में रूपवर्णन की प्रधानता बिहारी की विशेषता है। नारी सौंदर्य की सुकोमलता, मादकता का वर्णन करते हुए आप लिखते हैं - 'अरुन बरन तरुनी चरण- अँगुरी अति सुकुमार । चुवत सुरंग रँगसो मनो चपि बिछुवन के भार ।' विरहजन्य दुर्बलता की मार्मिक व्यंजना निम्न दोहे में दृष्टव्य है। 'करके मीड़े कुसुम सी गई विरह कुम्हिलाय । सदा समीपिन सखिन हूँनीकि पिछानी जाय ॥' अलंकारों की कलात्मक योजना 'बिहारी सतसई' की विशेषता ही कही जाएगी। अनुप्रास, वीप्सा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग बिहारीजी ने बड़ी खूबी से किया है भाषा की समास शक्ति का परिचय देनेवाला निम्न दोहा दृष्टव्य है - कहत नटत रीझत खिझत मिठत खिलत रुजियात भरे भौन मों करत हैं, नैननु ह्रीं सो बात ।' बिहारी सतसई की भाषा ब्रज है । भाषा की प्रांजलता, शब्दों का सुष्ठु चयन, पदविन्यास की कुशलता, लाक्षणिकता, चित्रौपमता, नादयोजना, ध्वन्यात्मकता जो बिहारी सतसई में लक्षित होती है वह अन्य किसी भी कृति में लक्षित नहीं होती । ऊपर के विवेचन से काव्यगुणों की दृष्टि से "बिहारी सतसई' की उत्कृष्टता प्रमाणित हो जाती है। For Private & Personal Use Only 100 Thes उपगारी उपगार की, कभी न करता बात । जयन्तसेन महानता, रवि शशि की दिन रात ॥ www.jajnelibrary.org

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