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आचार्य नेमिचंद्रसूरि का व्यक्तित्व
(डा. श्री हुकुमचंद जैन) आचार्य नेमिचंद्रसूरि (उपनाम देवेंद्रगणि) १२ वीं शताब्दी के (३) नमिसाधुकृत (वि. सं. ११२५) काव्यालंकार वृत्ति । महान् आचार्य थे । इनकी प्रमुख रचनाएँ (आरकानकमणिकोश, (४) चंद्रप्रभु महत्तर कृत (वि. सं. ११२७) विजयचंद्र चरित्र । उत्तराध्ययन वृत्ति, महावीर चरियं, रयणचूडरायचरियं, आत्मबोधकुलक
(५) देवसेन कृत (वि. सं. ११३२) सुलोचण चरित्र । अथवा धर्मोपदेश कुलक) हैं | इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन समाज को जागृत किया । इन रचनाओं में दान, शील,
(६) जिनचंद्रसूरि कृत (वि. सं. ११३५) संवेगरंगशाला । तप, भावना, एवं अन्य आचार संहिताओं को कथाओं एवं उपदेशों (७) वर्धमानाचार्य कृत (वि. सं. ११४०) मनोरमा चरियं । के माध्यम से समझाया है । आरकानकमणिकोष जैसे कथा ग्रंथ को या इन कवियों के समकालीन होने के कारण नेमिचंद्रसूरि ने लिखकर तो वे संसार में छा गये | उनके कथा ग्रंथों में तत्कालीन अपने ग्रंथों में कथा और चरित्र की सभी विशेषताओं को समावेश सभ्यता एवं संस्कृति के सभी तत्त्व विद्यमान हैं।
करने का प्रयल किया है जो उस समय के साहित्य में प्रचलित थी। (१) प्रारंभिक जीवन :- आचार्यनमिचंद्रसूरि के प्रारंभिक जीवन के देवेंद्रसूरिगणि का कार्यक्षेत्र गुजरात था । इस राजघराने के संबंध में उनकी स्वयं की रचनाओं अथवा अन्य दूसरे साहित्य में समय में जैन साहित्य की पर्याप्त प्रगति हुई है । देवेंद्रगणि ने अपने कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है । उनके स्वयं के ग्रंथों की “महावीर चरियं" की प्रशस्ति में यह कहा है कि उन्होंने 'श्री कर्ण प्रशस्तियों आदि के आधार पर उनकी गुरु परंपरा का तो पता राज्य में, अणहित्तवाडपुर में इस ग्रंथ की रचना की थी। चलता है किंतु लेखक के परिवार, जन्मस्थान, बचपन, गृहस्थजीवन
इससे स्पष्ट है कि देवेंद्रगणि गुजरात के सोलंकी वंश के कर्ण आदि के संबंध में अभी तक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं हैं ।
राजा के राज्य में अपनी रचना कर रहे थे । ये कर्णराजा मूलराज तत्कालीन पट्टावलियों और गच्छों के इतिहास में भी लेखक के
के वंशज थे । इसी समय में काश्मीर के कवि विल्हण ने मुनि जीवन का ही उल्लेख है।
"कर्णसुन्दरी" नामक एक नाटिका लिखी है । जिसमें नायक कर्ण म ग्रंथकार की प्रारंभिक रचनाओं में देवेंद्र साधु नाम मिलता। और नायिका कर्णसुन्दरी है । विद्वानों का मत है कि इस नाटिका है। संभवतः गृहस्थ जीवन में भी उनका नाम देवेंद्र रहा हो । और में गुजरात के राजा कर्णदेव त्रैलोक्यमल के संबंध में बहुत से जब उन्होंने गणिपद प्राप्त किया तब वे देवेंद्रगणि के नाम से जाने ऐतिहासिक वृत्तांत भी जाने जा सकते हैं। इन समकालीन कवियों गये । उसी समय से उनका नाम आचार्य नेमिचंद्रसूरि प्रचलित रहा को राजा कर्णदेव के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होने पर तथा होगा।
इन कवियों की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन होने पर नेमिचंद्रसूरि (२) समकालीन कवि एवं राजा :- देवेंद्रगणि के अपने ग्रंथों में के व्यक्तित्व पर और प्रकाश पड़ सकता है। किसी समकालीन कवि के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । (३) आत्मलाघव :- आचार्य नेमिचंद्रसूरि यद्यपि प्राकृत के महान् किंतु इतना अवश्य कहा कि आनंद उत्पन्न करने वाली विद्वानों कवि और आगम के जानकार थे फिर भी उन्होंने अपने ग्रंथों में की अन्य कथाओं के विद्यमान होते हुए मेरी यह कथा (रयणचूडराय बड़ी विनम्रता से आत्मलाघव प्रकट किया है । 'रयणचूडरायचरियं" चरिय) विद्वानों के लिए हास्य का स्थान होगी । उनके इस कथन के प्रारंभ में उन्होंने कहा है कि मेरी इस रचना में न गंभीर अर्थ है, -से यह स्पष्ट है कि वे प्राचीन आचार्यों की कथाओं एवं चरित ग्रंथों न अलंकार है, फिर भी मैं इस कथा को कहूँगा । क्योंकि यह कथा से परिचित थे । और उन्होंने अपने समकालीन कवियों की अज्ञानियों के उद्बोधन के लिए और अपने स्मरण के लिए कही कथाओं का भी अध्ययन किया होगा । “समराइच्चकहा", गयी है। यह कथा न पांडित्य प्रदर्शन के लिए और न विद्वानों के "कुवलयमालाकहा", "तिलकमंजरी", चउप्पन्न-महापुरिसचरियं" आदि प्रमोद के लिए है । इसी ग्रंथ के अंत में भी ग्रंथकार ने अपनी रचनाओं के परिपेक्ष्य में देवेंद्रगणि द्वारा उक्त विचार प्रकट करना लघता प्रदर्शित की है और कहा है कि इस कथा को मैं केवल एक ओर उनकी विनम्रता का प्रतीक है तो दूसरी ओर वस्तुस्थिति काव्य रचना के अभ्यास के लिए लिख रहा हूँ | विद्वान लोग का परिचायक भी।
इसके दोष समूह का शोधन करें । - नेमिचंद्रसूरि की रचनाओं के समय की सीमा ११२९ से महावीरचरियं की प्रशस्ति में भी ११४१ वि.सं. है । किंतु उनका अध्ययन काल संभवतः वि.सं. ग्रंथकार ने कहा है कि आगम से ११२० से ११५० के लगभग रहा होगा । इस अवधि में जैन कथा रचित लक्षण और छन्दों से दूषित और चरित्रसाहित्य के प्रमुख समकालीन कवि इस प्रकार थे।
तथा मेरे अज्ञान से इस चरित्र में
जो त्रुटि रह गई है, इसके लिए मैं (१) श्रीचंद्र कृत (वि.सं. ११२०) कथाकरेसु ।
अपने दोषों की आलोचना करता (२) साधारण सिद्धसेन कृत (वि. सं. ११२३) विलासवई कहा ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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श्वान प्रवृत्ति छोड़ कर, शेर दृष्टि यदि होत । जयन्तसेन करता वह, पग पग पर उद्योत ।।।
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