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कषायों का क्लिष्ठ यौनर जिस के कारण अनादि से दापि पर्यन्त जीव कष्ट एवं भवोत्यात्ते के अतिरिक्त कुछ भी उपार्जन नहीं पाया । जबकि उस चोरवर शमन- उपशमन के बाद हुई सभ्यग दर्शन की उपाधि कर एवं भोल्पादक शक्तियों से मुक्ति मार्ग प्रदायिनी बनती है।
दर्शन का एक अर्थ श्रद्धा भी है जो जैन शरान या जैनागमो का एक पारिभाषिक है। संसारस्थ जीव को श्रद्धा क्षजेह दामें अधिक होती है। उस की दर सणजोधी पदार्थ में ही सामेताजाने से शाश्वत श्रद्धा से वह अति दूर रह जाता है) शाश्वत श्रधा
में जीव स्वयं को ही विस्मृत कर देन है म यो कहिये स्व यं खो बैठता है।
दर्शन जब सभ्यग जाता है त न में जागृतत्त्व का प्रकटी करण अवश्यंभावी ले जाता है। वे जोन को जीवन का मत पान कराती है। सभ्यम् दर्शन की एवना इतनी गहराई है कि जिस के भीतर प्रविष्ठ ले कर te4 से तमसा वृक्ष जीव अपने आप को दकिक प्रकाश पुंज से अत कर देता है।
सध्या दर्शन व्याक्त पाक्तत्व का परिचायक ही नहीं, उस की आन्तरिक स्थिति का राषक भी है।
इसी दिये अन्य दधना की तुलना में सम्यग् दर्शन अपने आप में अत्यधिक श्रेष्ठत्व तिथे जैन धर्म में अभिषिक्त स्थिति को पाये हर है।
सभ्यम् दर्शन आत्मिक वैभव प्रदायकता - प्रालि के अधिकार पत्र से संपन्न है। जहाँ तक सम्यग दर्शन नहीं वहाँ तक अतिभक व प्रासकर की मोरयता भी नहीं । यह तो स्वयं को स्वाभिमुख करने का श्रेष्ठतम सहारा है। भौतिक वैभव संपूर्ण जगत का अधिगत कर विभाजाय तथापि शून्य है और अगैकिक आत्मिक वैश्व प्रदायक सम्यग्दर्शन की प्रास शून्यावका के अंकोल से अलंकृत करती है
शत्य की अंक नहीं बनता किन्तु अंह पर प्रत्येक शून्य की शक्ति उत्तरोत्तर प्रबनवती बन जाती है । दस, शत, हजार, लाख एवं उस से भी अधिक बन जाती हैं।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International
मंत्र शिरोमणी है धुरि, महामंत्र नवकार। जयन्तसेन जपो सदा, उतरो भवजल पार My
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