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भद्रासन, दण्डासन को ध्यान के वीरासन, सुखासन, शुभचंद्र में
आदि से विरत होने की अनुभूति करता है । मूर्ति रूप के अनुरूप जैन प्रतिमाओं में तीन आसनों का अधिक उल्लेख हुआ है व साधक भी प्रशांत भाव से सुखासन में स्थित हो बांये हाथपर दांये उनका प्रकलन भी हुआ है वे हैं - - हाथको रखे । देह के प्रति अनासक्ता रखे इससे जीवन में दिव्य
(१) पर्यंकासन - इसे पद्मासन मुद्रा भी कहा गया है । शांति एवं समाधि दशा का अनुभव होगा।
यौगिक ग्रन्थों के अनुसार इसमें पैरों को इसप्रकार मोड़कर बैठा जैनदर्शन में योग शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है। जाता है कि दाहिना पैर बांयी जंघा पर और बांयाँ दाहिनी जंघा पर उमास्वामी ने मन, वचन और कार्य की प्रक्रिया के अर्थ में रहता है, नेत्र नासाग्र पर स्थित रहते हैं। महावीर, ऋषभनाथ तथा योगशब्द का प्रयोग किया है ।' भट्ट अकलंक देव, वीरसेन आदि नेमिनाथ की प्रतिमाएँ इसी मुद्रा में बनाने का विधान किया गया के ग्रन्थों में आत्म-प्रदेशों के हलनचलन और आत्म प्रदेशों के संकोच विकोच के अर्थ में 'योग' शब्द प्रयुक्त किया है । जैनधर्म
म "वीरः ऋषभः नेमिः एतेषां जिनानां पर्यङ्कासनम् में योगी के लिये आसन-विधान किया गया है । आचार्य शुभचंद्र ने पर्यकासन, अर्द्धपर्यंकासन वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन
शेषजिनानां उत्सर्ग-आसनम् ।" और कायोत्सर्गासन को ध्यान के योग्य बताया है । हेमचंद्र ने (२) अर्द्धपर्यंकासन - इसमें एक पैर नीचे लटकता रहता है तथा भद्रासन, दण्डासन, उत्कटासन, गोदोहिकासन भी बड़े उपयोगी दूसरा पहले पैरकी जंघा पर रखा रहता है । इसे ललितासन भी बताये हैं |
कहते हैं । जिन-प्रतिमाओं में यह आसन नहीं दिखाया जाता किन्तु इन आसनों से इंद्रियाँ वश में होती हैं व समाधि की अवस्था
उनके यक्ष एवं यक्षी या यक्षिणी इस मुद्रा में बनाये जाते हैं। की ओर बढ़ना सरल हो जाता है । जो साधक योग नहीं जानता (३) खड्गासन - यह ध्यान की खड़ी मुद्रा है इसमें पैरों के मध्य उसे शरीर की स्थिर स्थिति नहीं प्राप्त होती । आसन करने वाले सामने की ओर लगभग तीन अंगुल की जगह रहती है, भुजाएँ योगी को आसनजयी यानी आसनों में दक्ष होना चाहिये । आचार्य ___ दोनों ओर घुटनों के नीचे तक स्पर्श करती रहती हैं या कभी स्पर्श शुभचंद्र एवं आचार्य हेमचंद्र ने योग के लिए प्राणायाम की भी नहीं करती झूलती रहती हैं । तीर्थंकरों की खड़ी प्रतिमाएँ इसी अनिवार्यता प्रतिपादित की है । रेचक, पूरक एवं कुंभक के साथ आसन में दर्शायी गई हैं । इस प्रकार योग का जैनधर्म में भस्त्रिका, भ्रामरी एवं योनिमुद्रा का भी उल्लेख किया है । प्राणायाम । अत्यधिक महत्व निरूपित किया गया है । साधक इन आसनों को से मन जीता जाता है और उसे स्थिर भी किया जाता है । जैन, मूर्तिशिल्प से सीख सकता है । जैन तीर्थंकर - प्रतिमाएँ मानव को लेखक ब्रह्मदेव कहते हैं कि कुंभक से शरीर निरोग हो जाता है। योग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक हैं।
जैन तीर्थकर अपने आचरण में एक ओर योगी थे तो दूसरी ओर धर्मोपदेशक । जैन मूर्तियों में यौगिक आसनों और मुद्राओं का ही प्रतिष्ठापन प्रतिबिम्बित होता है । जैन प्रतिमा - विज्ञान द्वारा
मधुकर-मौक्तिक भी यह आसन पुष्ट हुए हैं कि साधक इन आसनों में बनी प्रतिमाओं के समक्ष बैठकर ध्यान करे व अपने को भी तीर्थंकर के
कुछ आत्मवादी ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने कोरे ज्ञान का बताये योगमार्ग का अनुसरणकर्ता बनावे ।
बड़ा घमंड होता है। वे दूसरे लोगों के धार्मिक क्रिया-कलापों का उपहास करते हैं। वे कहते हैं, इन बाहय क्रियाओं से
सामायिक, प्रतिक्रमण से; मुनिलिंग धारण करने से, कुछ भी तत्वार्थ सूत्र ६१
नहीं होगा | ऐसे लोग अभी तक आत्मवाद को समझ नहीं तत्वार्थ वार्तिक ६१1१०
पाये हैं। ये केवल तोते की तरह रटी-रटायी बातें बोलते हैं। जैन विषयों पर लगभग
सच्चा आत्मवादी किसी की निन्दा नहीं करता-किसी का पचास शोधपत्र प्रकाशित । अपने
उपहास नहीं करता । वह केवल ज्ञान से नहीं, पर ज्ञान और शोधकार्य के लिये सम्पूर्ण मध्यप्रदेश
क्रिया दोनों से कार्य-सिद्धि मानता है। के जैन -शिल्प एवं स्थापत्य का
-जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' अध्ययन किया । जैन संगोष्ठियों में जैन कला पर शोधपत्रों का वाचन । वर्तमान में जयसिंहपुरा जैन संग्रहालय एवं खारा कुआ उज्जैन की मूर्तियों एवं हस्तलिखित ग्रंथो पर विशेष अध्ययन ।
सिंधियाप्राच्यशोध -प्रतिष्ठान उज्जैन डॉ. मायारानी आर्य
में उपलब्ध, जैन ग्रंथों की एम.ए., पी.एच.डी. प्रामाणिक सूची का निर्माण।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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आत्मा शाश्वत है सदा, चलित काल को मान । जयन्तसेन सयम सुधा, पाते विरले जान ||
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