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जैन-धर्म एवं योग -
पासन, समीक्षक डॉ. वृन्दाव मानसिक एवं
(डॉ. मायारानी आर्य) जैन - धर्म एक साधना - पद्धति में विश्वास करता है जिसमें केवल ईश्वर प्राप्ति ही नहीं हैं, अपितु योग उस क्रिया का नाम है, शरीर पर विशेष ध्यान दिया जाता है और 'योग' में भी शरीर पर जिसके द्वारा आभ्यन्तर तथा बाह्य जीवनका ऐसा परिपूर्ण उत्सर्ग काबू करके अपने चरम लक्ष्य पर पहुंचने का आग्रह है । जैन धर्म तथा परिवर्तन हो कि उसके द्वारा भगवान् चैतन्य की अभिव्यक्ति में योग की प्रतिष्ठा भगवान् महावीर के जीवनकाल से ही स्थापित ____ हो तथा वह स्वयं भी भगवत्-कर्म का एक अंग बन सके ।' हा चुका था। जन आगम ग्रन्था म ताथकर प्रातमाआ कानमाणी योग शब्द की उक्त परिभाषाओं तथा महापुरुषों द्वारा की गई की पद्धति में जो विशेषध्यान आसन पर दिया गया है जिनमें
विभिन्न व्याख्याओं का मूल आशय एक ही है और वह है - "योग पद्मासन, खड्गासन और पर्यंकासन प्रमुख हैं । जैन मूर्तिकला के
उस क्रिया का नाम है जो जीवात्मा का परमात्मा से मिलन कराता प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. वृन्दावन भट्टाचार्य ने लिखा है कि जैन मूतिया है. अर्थात जिस साधन द्वारा जीवात्मा और परमात्मा में एक्य साधना पक्ष में व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक उत्थान के साथ
स्थापित हो सके, वही 'योग' है। एकाकार होकर उसे निर्वाण या मोक्ष का मार्ग दिखाती हैं । यथार्थ में 'तीर्थंकर' बिम्ब के समक्ष साधक अपने शरीर एवं मन को
जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त और योग :एकाग्रचित्त करके मूर्ति में प्रकल्पित नासिकाग्र दृष्टि एवं भ्रूमध्य घा जैनधर्म व दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त 'स्याद्वाद' या दृष्टि को टिकाकर उन सभी गुणों की प्रादुर्भूति अपने शरीर में लाने 'अनेकांतवाद' है | जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनंत धर्मों से का प्रयास करता है।
युक्त है और इन अनंत धर्मों का साक्षात्कार साधारण मानव नहीं जैन धर्म एवं दर्शन निवृत्तिप्रधान है, जिसमें शरीर को
कर सकता । कैवल्यज्ञानसंपन्न योगी ही कर सकता है । साधारण तपश्चर्या की ऊष्मा में तपाकर जीवन की समस्त भौतिक संपदा मानव को वस्तु का आंशिक या सापेक्ष ज्ञान ही प्राप्त होता है. को नकारते हुए अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की व्यावहारिक
अतः वह अपने इस ज्ञान के आधार पर यह नहीं कह सकता कि दीक्षा की सार्थकता को स्वीकारा गया है । ईसा पूर्व की छटी
"वस्तु ऐसी ही है ।" यदि वह ऐसा कहेगा तो उसका यह कथन शताब्दी में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर तक आते-आते प्रमाण का काटि में न आकर 'दुर्णय' की कोटि में चला जायेगा। शरीर को कठोर यातना देकर उसे अपने चरम लक्ष्य तक पहुँचाने इसीलिये 'स्याद् पद जोड़कर उसके द्वारा यह प्रकट किया कि का साधन स्वीकार कर लिया गया था । महावीर ने अपने जीवन
"वस्तु स्यात् अर्थात् संभवतः ऐसी है" या "ऐसी नहीं भी है।" काल में ऐसी कई यौगिक क्रियाओं का सतत अभ्यास किया था,
यह सिद्धान्त ही 'स्याद्वाद' है। जिनसे मन की चंचलता समाप्त होकर ध्यान की एकाग्रता आती मजीव की अपनी तय्यारी और उसे सतत अभ्यास द्वारा थी। महावीर स्वयं खड्गावस्था में अपने दांये अंगूठे पर छह माह अपने, दूसरों व ब्रह्माण्ड के विषय में जानकारी लेना ही जैनधर्म तक स्थिर खड़े रहे थे | बाद में बौद्ध धर्म में भी योग की क्रियाओं की मुख्य वैचारिकता है । योग के सिद्धान्त सर्वप्रथम जैनधर्म में ही का विशेष सम्मान होता रहा । ऐतिहासिक कालक्रम में महावीर ही दृष्टिगोचर होते हैं । जब महावीर के जीवन काल में ही जीवंतस्वामी योग के सर्वप्रथम उद्गाता थे। बाद में दूसरी शताब्दी ईसवी में की प्रतिमा बनी तो उसे खड्गासन प्रकल्पित किया । समानुपतिकता पतंजलि ने योगदर्शन को व्यवस्थित किया ।
में तीर्थकर प्रतिमा में शरीरयष्टि नितांत सधी हुई पुष्ट एवं योग का सामान्य अर्थ :
इंद्रियजयी की शरीर छबि है | जैन प्रतिमाएँ साधक के लिए चिंतन
के लिए एक आदर्श व उससे अनुकरण कर अपनी शरीरस्थ इंद्रियों योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'युज् समाधौ' धातु में
की तय्यारी है ताकि उस तीर्थंकर प्रतिमा से अपने जीवन में 'घञ्' प्रत्यय लगाने से तथा 'युजिर् योगे' धातु में 'कर्तरि घञ्'
व्यावहारिक ज्ञान उतारे, अपने को भी उसी भांति बनाने का प्रयास प्रत्यय लगने से हुई है । इस प्रकार इस शब्द के सामान्य अर्थ हैं -
करे । साधक उस बिम्ब से अपना 'योग' करे और वैचारिक 'समाधि' तथा 'जोड़नेवाला' | पतंजलि के "योगभाष्य" के अनुसार
उच्चता के सोपान कर चढ़ने का "योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः" अर्थात् योग
प्रयास करे । इसीमें उसकी सार्थकता समाधि को कहते हैं जो चित्त का सार्वभौमधर्म है । दूसरे शब्दों में "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है । गीता के अनुसार “समत्वंयोगउच्यते" अर्थात्
वीतरागमुद्रा के विषय में जीवात्मा और परमात्मा के एकीकरण का नाम 'योग' है । तथा
आचार्य शुभचंद्र के “ज्ञानार्णव" एवं दसरी व्याख्या गीताकार ने इसप्रकार दी है. "योगः कर्मसकौशलम" आचार्य हेमचंद्र के 'योगशास्त्र' में अर्थात् कौशल से किये कार्य को ही योग कहते हैं । इसी प्रकार
विस्तार से चर्चा की गई है । जहां प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक अरविंद ने कहा है - "योग का अर्थ
- साधक राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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समय समय की बात है, समझे समय सुजान। जयन्तसेन समय बडा, जग में है बलवान ।।
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