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हो, जागता हो, उचित आसन में हो, न हो फिरभी वह शरीर और बलवती एवं चैतन्य युक्त बनाने की प्रेरणा पाते हैं। मत्र हमारा मन के (बाहरी-भीतरी) सभी पापों से मुक्त हो जाता है । उसका आदर्श है - हमारी भीतरी शक्तियों को जगाने और क्रियाशील शरीर और मन अद्भुत पवित्रता से भर जाता है। मानव का यह बनाने वाला । शरीर लाख प्रयल करने पर भी सदा अनेक रूपों में अपवित्र रहता राम हम अपने नित्यप्रति के संसार में जब किसी बीमारी, ही है, प्रयल यह होना चाहिए कि हमारी ओर से पवित्रता के प्रति राजनीतिक संकट, शीलसंकट, पारिवारिक संकट एवं ऐसे ही अन्य सावधान रहा जाए। इस शरीर से भी हजार गुना मन चंचल होता संकटों से घिर जाते हैं और घोर अकेलेपन का. असहायता का है और पाप प्रवृत्ति में लीन रहकर अपवित्र रहता है। केवल
अनुभव करते हैं, तब हम क्या करते हैं ? रते हैं, चीखते हैं और णमोकार मन्त्र की पवित्रतम शरण ही इस जीव को शरीर और मन कभी-कभी घटकर आत्महत्या भी कर लेते हैं। या फिर राक्षस भी की पवित्रता प्रदान करती है। यह मन्त्र किसी भी अन्य मन्त्र या बन जाते हैं। पर ऐसी स्थिति में एक और विकल्प है अपने रक्षकों शक्ति से पराजित नहीं हो सकता, बल्कि सभी मन्त्र इसके आधीन और मित्रों की तलाश | अपनी भीतरी ऊर्जा की तलाश । हम हैं । यह मन्त्र समस्त विघ्नों का विनाशक है । समस्त मंगलों में मित्रों को याद करते हैं, पुलिस की सहायता लेते हैं - आदि आदि । प्रथम मंगल के रूप में सर्व-स्वीकृत है । महत्ता और कालक्रम से इसी अकेलेपन के सन्दर्भ में - सहायता और आत्म-जागरण की इसकी प्रथमता सनिश्चित है । इस मन्त्र के प्रभाव से विघ्नों का तलाश में हम अपने परम पवित्र ऋषियों, मनियों एवं तीर्थंकरों के दल, शाकिनी, डाकिनी, भूत, सर्प, विष आदि का भय क्षण भर में महान कार्यों और आदर्शों से प्रेरणा लेते हैं । मन्त्र तो अन्ततः प्रलय को प्राप्त हो जाता है।
अनादि अनन्त हैं | तीर्थंकरों ने भी इनसे ही अपना तीर्थ पाया है। जा यह मन्त्र समस्त संसार का सार है | त्रैलोक्य में अनुपम है जब हमें किसी मंगल की, किसी लोकोत्तम की शरण लेनी है, तो और समस्त पापों का नाशक है । विषम विष को हरनेवाला और स्वाभाविक है कि हम महानतम को ही अपना रक्षक और आराध्य कर्मों का निर्मलक है। यह मन्त्र कोई जादू टोना या चमत्कार नहीं बनायेंगे और हमारा ध्यान - हमारी दृष्टि महामन्त्र णमोकार पर ही है, परन्तु इसका प्रभाव निश्चित रूप से चमत्कारी होता है। प्रभाव जाएगी। की तीव्रता और अनुपमता से भक्त आश्चर्य-चकित होकर रह स्वयं की संकीर्णता और सांसारिक स्वार्थान्धता को त्यागकर जाता है। यह मन्त्र समस्त सिद्धियों का प्रदाता, मुक्ति सुख का हमें अपने ही विराट में उतरना होगा-तभी महामन्त्र से हमारा दाता है, यह मन्त्र साक्षात् केवल ज्ञान है । विधिपूर्वक और भाव भीतरी नाता जड़ेगा। महामन्त्र तक पहुँचने के लिए हमें मत्र सहित इसका जाप या स्मरण करने से भी सभी प्रकार की लौकिक- (शुद्ध-चित्त) तो बनाना ही होगा। अन्ततः इस महामन्त्र के माहाल्य अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । इससे समस्त देव सम्पदा
एवं प्रभाव के विषय में अत्यन्त प्रसिद्ध आर्षवाणी प्रस्तुत है - वशीभूत हो जाती है | मुक्तिवधू वश में हो जाती है । चतुर्गति के
"हरइ दुहं, कुणइ सुहे, जणइ जस सोसए भव समुदं । सभी कष्टों को भस्म करनेवाला यह मन्त्र है । मोह का स्तम्भक और विषयासक्ति को समाप्त करने वाला है | आत्मविश्वास को
इह लोए पर लोए, सुहाण मूलं णमुक्कारो ।" प्रबलता देनेवाला तथा सभी स्थितियों में जीव मात्र का परम मित्र
अर्थात् यह नवकार मन्त्र दुःखों का हरण करनेवाला, सुखों का है। "अह" यह अक्षर युगल साक्षात् ब्रह्म है । और परमेष्ठी का
प्रदाता, यश दाता और भवसागर का शोषण करने वाला है। इस वाचक है | सिद्धियों की माला का सद्बीज है । मैं इसको मन,
लोक और परलोक में सुख का मूल यही नवकार है। वचन और काय की समग्रता से प्रणाम करता हूँ। हे जिनेश्वर रूप "भोयण समये समणे, वि बोहणे - पवेसणे - भये - बसणे । महामन्त्र मुझे आपके अतिरिक्त कोई अन्य उबारनेवाला नहीं है। पंच नमुक्कारं खलु, समरिज्जा सव्वकालंपि।"
आप ही मेरे परम रक्षक हैं । इसलिए पूर्ण करुणाभाव से हे देव ! अर्थात् भोजन के समय, सोते समय, जागते समय, निवास मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए ।
स्थान में प्रवेश के समय, भय प्राप्ति के समय कष्ट के समय इस मथितार्थ :
महामन्त्र का स्मरण करने से मन वांछित फल प्राप्त होता है। । सम्पूर्ण निबन्ध का सार यह है कि महामन्त्र णमोकार पर महामन्त्र णमोकार मानव ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के भक्तों का अटूट विश्वास है - तकतिीत शंकातीत विश्वास है । इहलोक और परलोक का सब से बड़ा रक्षक एवं निर्देष्टा है । इस उनके मन्त्र संबंधी अनुभव तार्किकों और नास्तिकों को मिथ्या लोक में विवेक पूर्ण जीवन जीते हुए मानव अपना अन्तिम लक्ष्य - अथवा आकस्मिक लग सकते हैं।
आत्मा की विशुद्ध अवस्था इस मन्त्र से प्राप्त कर सकता है- यही मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि हम मनो-विज्ञान इस मन्त्र का चरम लक्ष्य भी है। और अध्यात्म को तो मानते ही हैं । कम से कम मानसिकता और "जिण सासणस्स सारो, चदूरस भावनात्मकता को तो मानते ही हैं | साहित्य के श्रृंगार, करुण, पुण्याण जे समुद्धारो। वीर, रौद्र, आदि नव रसों को भी अपने जीवन में घटित होते जस्स मणे नव कारो, संसारो तस्स देखते ही हैं । यह सब मूलतः और अन्ततः हमारे मनोजगत् के किं कुणइ ।" अर्जित एवं सर्जित भावों का ही संसार है।
अर्थात् नवकार जिन शासन का मन्त्रों को और विशेषकर इस महामन्त्र को यदि हम पारलौकिक सार है चौदह पूर्व का उद्धार है । शक्ति से न भी जोडे तो भी इतना तो हमें मानना ही होगा कि हमे यह मन्त्र जिसके मन में स्थिर है चित्त की स्थिरता, दृढ़ता और अपराजेयता के लिए स्वयं में ही संसार उसका क्या कर सकता है? गहरे उतरना होगा और दूसरों के गुणों और अनुभवों से कुछ अर्थात काठ नहीं बिगाड सकता। सीखना होगा । बस महामन्त्र से हम स्वयं की शक्तियों को अधिक
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ | विश्लेषण
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देख अवर की संपदा, द्वेष न ईर्ष्या भाव। जयन्तसेन महान वह, रहे न उस का घाव ||
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