Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 174
________________ Shering Cap S णमोकार मन्त्र का माहात्म्य एवं प्रभाव 16215 (डॉ. श्री रवीन्द्रकुमार जैन ) पृष्ठाधार : अनादि - अनन्त णमोकार महामन्त्र के माहात्म्य का अर्थ है उसकी महती आत्मा (आत्मशक्ति) अर्थात् अंतरंग और मूलभूत शक्ति । इसी को हम उस मन्त्र का गौरव, यश और महत्ता कहकर भी समझते हैं। यह मूलतः आत्म-शक्ति का, आत्म-शक्ति के लिए और आत्म-शक्ति के द्वारा अपरिमेय काल से कालजयी होकर, समस्त सृष्टि में जिजीविषा से लेकर मुमुक्षा तक की सन्देश तरंगिणी का महामन्त्र है । इस मन्त्र की महिमा का जहाँ तक प्रश्न है वह तो हमारे समस्त आगमों में बहुत विस्तार के साथ वर्णित है । यह मन्त्र हमारी आत्मा की स्वतन्त्रता अर्थात् उसकी सहजता को प्राप्त कराकर उसे परमात्मा बनाने का सब से बड़ा, सरलतम और सुन्दरतम साधन है यही इसकी सब से बड़ी महत्ता है। इस के पश्चात् हमारी समस्त सांसारिक उलझनें तो इस मन्त्र के द्वारा अनायास ही सुलझती चली जाती हैं। पारिवारिक कलह, शारीरिकमानसिककरुणता, निर्धनता, अपमान, अनादर, सन्तानहीनता आदि बातें भी इस महामन्त्र के द्वारा अपना समाधान पाती हैं। आशय यह है कि यह मन्त्र मानव को धीरे धीरे संसार में रहकर संसार को कैसे जीतना है यह सिखाता है और फिर मानव में ही ऐसी आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करता है कि मानव स्वतः निर्लिप्त और निर्विकार होने लगता है। उसे स्वात्मा में ही परम तृप्ति का अनुभव होने लगता है। अतः इस महामन्त्र के भी शारीरिक और आत्मिक धरातलों को पूरी तरह समझकर ही हम इसकी सम्पूर्ण महत्ता को समझ सकते हैं । आगमों में वर्णित मन्त्र-माहात्म्य : णमोकार महामन्त्र द्वादशाङ्ग, जिनवाणी का सार है । वास्तव में जिनवाणी का मूल स्रोत यह मन्त्र है ऐसा समझना न्यायसंगत है । यह मन्त्र बीज है और समस्त जैनागम वृक्ष-रूप हैं । कारण पहले होता है और कार्य से छोटा होता है । यह मन्त्र उपादान कारण है । प्रायः समस्त जैन शास्त्रों के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में प्रत्यक्षतः णमोकार महामन्त्र को उद्धृत कर आचार्यों ने उसकी खोकोत्तर महत्ता को स्वीकार किया है, अथवा देव, शास्त्र और गुरु के नमन द्वारा परोक्ष रूप से उक्त तथ्य को अपनाया है । यहाँ कुछ प्रसिद्ध उद्धारणों को प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा । इस महामन्त्र की महिमा और उपकारकता पर यह प्रसिद्ध पद्य द्रष्टव्य है। एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़र्म हब मंगलं ॥ अर्थात् यह पंच नमस्कार - मन्त्र समस्त पापों का नाशक है, समस्त मंगलों में पहला मंगल है, इस नमस्कार मन्त्र के पाठ से समस्त मंगल होंगे । वास्तव में मूल महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठियों के नमन से सम्बन्धित पाँच पद ही हैं। यह पद्य तो उस महामन्त्र का मंगलपाठ या महिमागान है। धीरे-धीरे भक्तों में यह पद्य भी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण P thes Jain Education International णमोकार मंत्र का अंग सा बन गया और इसके आधार पर महामन्त्र को नवकार मन्त्र अर्थात् नौ पदोंवाला मन्त्र भी कहा जाता है । इसी महत्वाङ्कन की परम्परा में मंगलपाठ का और भी विस्तार हुआ है । चार मंगल, चार लोकोत्तर और चार शरण का मंगलपाठ होता ही है। ये चार हैं अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली -प्रणीत धर्म । इसमें आचार्य और उपाध्याय को धर्म प्रवर्तक प्रचारक वर्ग के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है अतः खुलासा उल्लेख नहीं है । कभी कभी अल्पज्ञता और अदूरदर्शिता के कारण ऐसा भी कतिपय लोगों को भ्रम होता है कि आचार्य और उपाध्याय को संसारी समझकर छोड़ दिया गया है। वास्तव में ये दो परमेष्ठी धर्म की जड़ जैसी महत्ता रखते हैं; इन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है ? पाठ द्रष्टव्य है चार मंगल चार लोकोत्तम : चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंता लोगोत्तमा, सिद्धा लोगोत्तमा; चार - शरण चार शरण : चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवली पण्णत्ता धम्मो मंगलं ॥ अर्थात् चार चार का यह त्रिक जीवन का सर्वस्व है । चार मंगल हैं चार लोकोत्तम हैं साहू लोगोत्तमा, केवली पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा ।। : चत्तारि शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि सिद्धा शरणं पवज्जामि (८०) साहू शरणं पवज्जामि, केवली पण्णत्तं धम्मं शरणं पवज्जामि ॥ For Private & Personal Use Only एसो पञ्चणमोकारो गाथा की व्याख्या आचार्य सिद्धचन्द्र गणि ने इस प्रकार की है - एषः पञ्चनमस्कारः प्रत्यक्षविधीयमानः पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कारः प्रणामः । ये हैं अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । इस संसार से पार होना है तो ये चार ही सबलतम शरण (रक्षा के आधार हैं ।) अरिहंत, परमेष्ठी, साधु-परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । स च कीदृशः सर्वपाप प्रणाशनः । सर्वाणि च तानि पापानि च सर्वपापानि इति कर्मधारयः । सर्व पापानां प्रकर्षेण नाशनो विध्वंसकः सर्वपापप्रणाशनः इति तत्पुरुषः । सर्वेषां द्रव्यभाव भेदभिन्नानां मंगलानां प्रथममिदमेव मङ्गलम् । 100 एक वस्तु को देखते, भिन्न भिन्न सब लोग । जयन्तसेन परिगति वश, योग भोग या रोग | www.jainelibrary.org

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