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जैन-दर्शन और धर्म का बीज ।
(डॉ. श्री रतनचन्द्र जैन)
जैनदर्शन का मर्म है कि धर्म क्रिया में नहीं लक्ष्य में होता अन्याय का एक भी पैसा उसके पास न आने पावे | उसके ऊपर है । हम जीवन में किस चीज को पाना चाहते हैं, इस पर धर्म- यदि किसी बात का पूर्ण प्रयत्न करता है कि उसके हाथों किसी के अधर्म निर्भर है । यदि हम सांसारिक ऊँचाई पाना चाहते हैं तो साथ तिल भर भी अन्याय न हो । रिश्वत या घुसखोरी की तो वह हमारे भीतर धर्म का बीज है । क्योंकि सांसारिक ऊँचाई लक्ष्य होने स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता । किसी को संकट में पड़ा पर मनुष्य धन-दौलत, सत्ता, प्रभुता और ख्याति की प्राप्ति को ही देखकर वह कायरतापूर्वक मुख नहीं मोड़ सकता, बल्कि अपने एकमात्र धर्म मान लेता है, जिसके फलस्वरूप उसकी दृष्टि में प्राणों को भी खतरे में डालकर उसे संकटमुक्त करने की चेष्टा किसी भी नैतिक नियम का मूल्य नहीं रहता और वह छल-कपट, करता है । इस प्रकार लक्ष्य में अलौकिकता या आध्यात्मिकता आ हिंसा, अन्याय, किसी भी मार्ग का अवलम्बन कर अपने लक्ष्य को जाने पर लौकिक क्रियाएँ भी अंशतः अलौकिक या आध्यात्मिक सिद्ध करने की चेष्टा करता है । अतः सांसारिक ऊँचाई पाने का बन जाती हैं। लक्ष्य अधर्म का लक्षण है । इसके विपरीत, आध्यात्मिक ऊँचाई पर
उवमोगमिदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिढराणं । पहुँचना जिसके जीवन का उद्देश्य होता है, उसकी दृष्टि में धनदौलत, सत्ता, प्रभुता, ख्याति आदि सांसारिक वस्तुओं की
जं कुणढि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। निस्सारता पहले ही झलक चुकी होती है | इसलिए वह इन चीजों म अर्थात् सम्यग्दृष्टि आत्मा इन्द्रियों से चेतन और अचेतन द्रव्यों को पाने के लिए पापमार्ग का अवलम्बन नहीं करता । जीवनोपयोगी का जितना भी उपभोग करता है वह सब निर्जरा का निमित्त होता वस्तुओं की जितनी आवश्यकता होती है उन्हें वह न्यायमार्ग से ही है। अर्जित करता है । इसलिए आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचने का
तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि जीव का लक्ष्य निज आत्मा के लक्ष्य धर्म का मूलभूत लक्षण है।
सर्वोच्च स्वरूप को प्राप्त करता होता है अतः वह चेतन-अचेतन इस प्रकार धर्म की जड़ लक्ष्य में होती है, क्रिया में नहीं। पदार्थों का उपभोग ऐन्द्रिय सुख की लालसा से नहीं करता, अपितु यद्यपि जैसा लक्ष्य होता है उसी के अनुसार क्रिया भी होती है, शरीर को आध्यात्मिक साधना के अनुकूल बनाये रखने के लिए तथापि एक ही क्रिया भिन्न-भिन्न लक्ष्यों से भी हो सकती है। करता है । फलस्वरूप लक्ष्य की आध्यात्मिकता से उसकी उपभोग - उदाहरण के लिए पूजा, भक्ति, स्वाध्याय, व्रत, तप आदि शुभ क्रिया भी अंशतः आध्यात्मिक बन जाती है और नवीन कर्मबन्ध क्रियाएँ सांसारिक सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि लौकिक प्रयोजनों बहुत मामूली सा (अल्पस्थिति-अनुभागवाला) होता है। से भी की जा सकती है और मोक्षरूप आध्यात्मिक प्रयोजन
स
किन्त जिसके जीवन का लक्ष्य सांसारिक ऐश्वर्य होता है भी । अतः इन क्रियाओं के द्वारा यह निर्णय नहीं किया जा सकता
उसकी ये लौकिक क्रियाएँ पापमय ही बनी रहती हैं, क्योंकि वह कि इन्हें करनेवाला व्यक्ति धार्मिक है या अधार्मिक । यह निर्णय
भोजन करता है तो उसमें स्वाद की लालसा होती है, वस्त्र पहनता केवल इस तथ्य से किया जा सकता है कि इनके पीछे उसका लक्ष्य
है तो शरीर को सजाने का भाव मन में रहता है । चलते-फिरते, क्या है ? यदि ये क्रियाएँ वह लौकिक प्रयोजन से प्रेरित होकर
उठते-बैठते समय उसे प्राणियों के सुख-दुःख की चिन्ता नहीं करता है तो निश्चित है कि उसके भीतर धर्म नहीं है । यदि
रहती । जीविकोपार्जन में भी न्यायमार्ग की परवाह नहीं करता । आध्यात्मिक लक्ष्य इन क्रियाओं का स्रोत है तो निश्चित ही करने वाले के भीतर धर्म मौजूद है।
तात्पर्य यह कि यदि सांसारिक ऐश्वर्य जीवन का लक्ष्य है तो
पूजा, भक्ति, व्रत, तप, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड भी अधर्म ही बना ___ इसी प्रकार भोजन-पान, शयन-आसन, जीविकोपार्जन, विवाह,
रहता है और यदि आत्मा का सर्वोच्च स्वरूप जीवन का लक्ष्य होता सन्तानोत्पत्ति आदि लौकिक क्रियाएँ प्रायः सभी मनुष्य करते हैं ।
है तो लौकिक क्रियाएँ भी अंशतः धर्म बन जाती हैं। किन्तु जिसके जीवन का लक्ष्य आत्मा के सर्वोच्च स्वरूप को प्राप्त करना हो जाता है, उसकी ये क्रियाएँ भी धर्म का अंग बन जाती
जैसे एक ही जाति के बीज हैं। क्योंकि जब वह भोजन करता है तब स्वाद में उसकी आसक्ति
भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमियों में बोये नहीं होती, बल्कि धर्म के साधनभूत शरीर का निर्वाह ही प्रयोजनभूत
जाने पर भिन्न-भिन्न रूप में फलित होता है । जब वह चलता-फिरता, उठता-बैठता है तो इस बात का
होते हैं, वैसे ही एक ही शुभराग ध्यान रखता है कि उसकी इन क्रियाओं से किसी जीव को पीड़ा न
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि आत्माओं हो । किसी से बात करता है तो मुखमद्रा कठोर न हो जाय वाणी के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न फल देनेवाला में कटता न आ जाय, इस बात का बराबर ख्याल रखता है। मदा हा जाता है। को अत्यन्त प्रसन्न और वाणी को मृदु बनाकर ही बोलता है । इसी प्रकार लौकिक क्रियाओं आजीविका अर्जित करते समय इस विषय में सावधान रहता है कि का स्वरूप भी सम्यग्दृष्टि और
उदाहरण के क्रिया भिन्न-भिन्न लार क्रिया भी होती है
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
द्रव्यक्षेत्र अरुकाल है, भाव भव प्रतिबंध । जयन्तसेन उदय सभी, जीव मात्र संबंध ।।
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