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दूसरे शब्दों में उसकी वरीयता छ मास कम कर दी जाती है । अधिकतम तपावधि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थंकरों के समय में आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई हैं अतः अधिकतम एक साथ छः मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है । सामान्यतया पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है ।
मूल प्रायश्चित्त -- मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा पर्याय को समाप्तकर नवीन दीक्षा प्रदान करना । इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित दिया जाता था वह सबसे कनिष्ठ बन जाता था । यद्यपि मूल अनवस्थाप्य और पाराज्यिक प्रायश्वितों से इस अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष धारण करना अनिवार्य न था । सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी दोषों का पुनः पुनः सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र माना गया है । जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हो अथवा जिसपर सामान्य प्रायश्चित्त या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । पाराञ्चिक प्रायश्चित्त वे अपराध जो अत्यंत गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैन संघ की व्यवस्था धूमिल होती है, पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पाराज्यिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु संघ से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पाराश्चिक अपराध करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक गृहस्थवेष धारण कर निर्धारित तप का अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है तो उसे पुनः संघ में प्रविष्ट किया जा सकता है । किन्तु मेरी दृष्टि में ऐसा करना उचित नहीं है । बौद्ध परम्परा में भी पाराज्यिक अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने वाला भिक्षु सदैव के लिए संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है अतः प्राचीन जैन आचार्यों ने पाराज्यिक शब्द का जो अर्थ किया है उससे मैं सहमत नहीं हूँ । जीतकल्प के अनुसार अनवस्थाप्य और पाराञ्विक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से बन्द कर दिया गया है।' मुझे ऐसा लगता है। कि जब संघ से बहिष्कृत भिक्षु अन्य भिक्षु संघों में प्रवेश करके जैन संघ की आन्तरिक दुर्बलताओं का प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण आलोचना करते रहे होंगे तो यह समझा गया होगा कि पाराधिक प्रायश्चित्त का प्रचलन समाप्त कर दिया जाये। स्थानाङ्ग सूत्र में । निम्न पांच अपराधों को पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य माना गया
है ।
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जो कुल में परस्पर कलह करता हो ।
जो गण में परस्पर कलह करता हो ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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जो हिंसाप्रेक्षी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना चाहता हो ।
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जो छिद्रप्रेक्षी हो अर्थात् हो छिद्रान्वेषण करता हो । जो प्रश्नशास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो ।
स्थानांग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य मैथुनसेवी भिक्षुओं को पाराज्यिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन करने वाले को मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले एवं परस्पर मैथुन सेवन करने वालों को पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया। इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन सेवन करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोधन सम्भव होता है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तिओं का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और संघ के समस्त परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुतः जब अपराधी के सुधार की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाती है तो उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित के योग्य मानकर संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प के अनुसार तीर्थकर के प्रवचन अर्थात् श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पाराचिक प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन प्रवचन का अपर्णवाद करता हो वह संघ में रहने के योग्य नहीं माना जाता जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट विषयदुष्ट राजा के वध की इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला, भी पाराचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों के अनुसार पाराञ्चिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तपसाधना के पश्चात् संघ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है । पाराञ्विक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छः मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम समय १२ वर्ष माना गया है । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर को आगमों को संस्कृत भाषा में रूपान्तरित करने के प्रयत्न पर १२ वर्ष का पाराक्षिक प्रायश्चित्त दिया गया था । विभिन्न पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य की गाथा २५४० से २५९६ तक मिलता है । विशिष्ट विवरण के इच्छुक विद्वत्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए ।
अनवस्थाव्य
अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना है या अलग कर देना है । इस शब्द का दूसरा अर्थ है - जो संघ में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है । वस्तुतः जो अपराधी ऐसे अपराध करता है जिसके कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर देना आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है । यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को संघ से पृथक किया जाता है किन्तु वह एक सीमित समय के लिए होता है और उसका वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को संघ से पृथक किया
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पाव
वृध्दों का आदर नहीं, वश में नही जवान । जयन्तसेन सर्वत्र हि पाता वह अपमान ॥
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