Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 144
________________ निश्चय नहीं होता, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है। आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर (स) पांच अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ होना । (३) परिहरण - सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों करना चाहिए। दुराचरणों का त्याग करना (४) वारण - निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना । बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने (द) संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों के वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है । (५) निवृत्ति - अशुभ लिए है जिन्होंने संलेखना व्रत ग्रहण किया है । भावों से निवृत्त होना, (६) निन्दागुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं श्रमण प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा संभावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है । इसके पीछे समझना तथा उसके लिए पश्चात्ताप करना । (७) गर्हा - अशुभ मूल दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष आचरण को गर्हित समझना, उससे घृणा करना । (८) शुद्धिभी विचार - पथ से ओझल न हों। प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से प्रतिक्रमण के भेद - साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए उसे शुद्धि कहा गया है। हैं - १. श्रमण प्रतिक्रमण और २. श्रावक प्रतिक्रमण | कालिक प्रतिक्रमण किसका - स्थानांगसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं - (१) दैवसिक - प्रतिदिन का निर्देश है - (१) उच्चार प्रतिक्रमण - मल आदि का विसर्जन सायंकाल के समय पूरे दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर करने के बाद ईर्या (आने जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण उनकी आलोचना करना दैवसिक प्रतिक्रमण है । (२) रात्रिक - करना उच्चार प्रतिक्रमण है । (२) प्रश्रवण प्रतिक्रमण - पेशाब प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सम्पूर्ण रात्रि के आचरित पापों का करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण प्रतिक्रमण है। चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रतिक्रमण है (३) (३) इत्वर प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर पाक्षिक - पक्षान्त में अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में प्रतिक्रमण है । (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण - सम्पूर्ण जीवन के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक लिए पाप कैसे निवृत्त होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है । (५) प्रतिक्रमण है। (४) चातुर्मासिक-कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण - सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने के आचरित पापों का विचार हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है । (५) असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर सांवत्सरिक - प्रत्येक वर्ष संवत्सरी महापर्व के दिन वर्ष भर के पापों। लेना और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।। है। (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - विकार - वासना रूप कुस्वप्न प्रतिक्रमण - मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण जाता है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों है । यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनमोदन किया जाता है उन वह। आचाय भद्रबाहु न जिन-जन तथ्या का प्रातक्रमण करना सबकी निवृत्ति के लिए कृतपापों की समीक्षा करना और पुनः नहीं चाहिए इसका निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है । उनके करने की प्रतिज्ञा करना प्रतिक्रमण है | आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण अनुसार (१) मिथ्यात्व (२) असंयम (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभयोग की कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना ओर गये हुए अपने आपको पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण चाहिए । प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना है ।' आचार्य हरिभद्रने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों भी अनिवार्य माना है- (9) गृहस्थ एवं श्रमण उपासक के लिये का निर्देश किया है - (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किया गया है उन विहित कार्यों का आचरण से परस्थान, परधम) में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है । अप्रमत्त चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शंका के उपस्थित हो जाने पर और स्थित होना स्वस्थान है. जबकि चेतना का बहिर्मख होकर पर. (४) असम्यक् एव असत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने पर अवश्य वस्तु पर केन्द्रित होना पर - स्थान है । (२) क्षयोपशमिक भाव से प्रतिक्रमण करना चाहिए । औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक भाव से जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना क्षयोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूलगमन के चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है - ग कहलाता है । (३) अशुभ आचरण से निवृत्त (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण में निःशल्य भाव से प्रवृत्त होना तानातिचारों और १९ पापस्थानों प्रतिक्रमण है। का प्रतिक्रमण सभी को करना आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये। चाहिए। हैं (9) प्रतिक्रमण - पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर बो पंच महावतों मन वाणी और आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना । (२) प्रतिचरण - हिंसा, असत्य , योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति, ३। हाला आवश्यकटीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. ८७0 स्थानांगसूत्र, ६/५३८/ आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८/ -20TRI श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५०) खुदका दमन करो भला, दम जीवन सुखदाय । जयन्तसेन दमन बिना, जीवन निष्फल जाय ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only

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