Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 142
________________ ४ - आतुर प्रतिसेवना - भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना चाहिए।' का किया जाने वाला व्रत भंग आतुर प्रतिसेवना है। १.आचारवान् - सदाचारी होना आलोचना देने वाले व्यक्ति ५ - आपात् प्रतिसेवना - किसी विशिष्ट परिस्थिति के का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के उत्पन्न होने पर व्रतभंग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात् अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है | जो अपने ही प्रतिसेवना है। दोषोंको शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरे के दोषोंको क्या दूर करेगा । ६- शंकित प्रतिसेवना - शंका के वशीभूत होकर जो २. आधारवान् - अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में नियम भंग किया जाता है, उसे शंकित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना यह व्यक्ति हमारा अहित करेगा ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि चाहिए कि अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है। कर देना। ३. व्यवहारवान् - उसे आगम, श्रुत, जिज्ञासा, धारणा और ७- सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् होने वाले व्रत या जीत इन पांच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए नियम भंग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं। क्योंकि सभी अपराधों एवं, प्रायश्चित्तों की सूची आगमों में ८- भय प्रतिसेवना - भय के कारण जो व्रत या नियम उपलब्ध नहीं है अतः आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना भंग किया जाता है वह भय प्रतिसेवना है। चाहिए जो स्वविवेक अथवा आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित्त का अनुमान कर सके। ९ - प्रदोष प्रतिसेवना - द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा उसका अहित करना - प्रदोष प्रतिसेवना है। ४. अपव्रीडक - आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म१० - विमर्श प्रतिसेवना - शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके । श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भंग करना विमर्श प्रतिसेवना है । दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के ५. प्रकारी - आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह लिए विचारपूर्वक व्रतभंग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के करना विमर्श प्रतिसेवना है । व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति अपराध केवल स्वेच्छा से ६. अपारश्रावा. उस आलाचना करने वाले के दोषा का दूसर जानबूझ कर ही नहीं करता अपितु परिस्थितिवश भी करता है । के सामने प्रगट नहीं करना चाहिए, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहि सामने आलोचना करने में संकोच करेगा । कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है। ७. निर्यापक - आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए आलोचना करने का अधिकारी कौन ? 'कि, वह प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने वाले का सहयोगी बनना चाहिए। आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है इस सम्बन्ध में भी स्थानांग सूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है । उसके अनुसार ८. अपायदर्शी - अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर है' - (१) जातिसम्पन्न (२) कुलसम्पन्न (३) विनयसम्पन्न (४) सके। ज्ञानसम्पन्न (५) दर्शन सम्पन्न (६) चारित्र सम्पन्न (७) क्षान्त (क्षमा ९. प्रियधर्मा - अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्ममार्ग सम्पन्न) (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी) (९) अमायावी (मायाचार रहित) में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद पश्चात्ताप न १०. दृढधर्मा - उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन करने वाला)। समय में भी धर्म मार्ग से विचलित न हो सके। आलोचना किसके समक्ष की जाये - जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जाना चाहिए यह भी इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त माना गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह आलोचना की जानी चाहिए । साथ होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस ही इनके पदक्रम और वरीयता पर पहुँचा सकता है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। विचार करते हुए यह कहा गया है अतः जैनाचार्यों ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी करना चाहिए जो आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख उपस्थित हों, वहाँ सामान्य साधु या सकता हो और उसका अनैतिक लाभ न ले । स्थानांगसूत्र के गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं अनुसार जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जाती है उसे करनी चाहिए | आचार्य के उपस्थित स्थानाङ्ग १०/७१ स्थानाङ्ग १०/७२ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण सर्वोपरि सत्ता रही, सदा मनुज के हाथ। जयन्तसेन भ्रमति हुआ, ज्ञान दीप नहीं साथ ॥ _www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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