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संगम
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कानयों की संख्या, वर्गीकरण व भेद आदि के विचार से कई संग्रह नय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग प्रकार सामने आते है, पर सुविधा की दृष्टि से सर्वमान्य और करने को व्यवहारनय कहते हैं। उपयोगी रूप का ही यहां ग्रहण किया गया है।
अथवा द्रव्य और पर्याय का वास्तविक भेद जानना व्यवहार नैगम नय- । सामान्य विशेषाद्यनेक धर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नय है। नैगमः ।
नैगम, संग्रह और व्यवहार को द्रव्यार्थिकनय के सामान्य वर्ग वा सामान्य और विशेष आदि अनेक धर्मों को ग्रहण करने के अन्तर्गत मान लिया गया है क्योंकि ये द्रव्यसंस्पर्शी हैं । इनका वाला अभिप्राय नैगम नय कहलाता है । ... निगम शब्द का सम्बन्ध प्रत्यक्ष या पदार्थ (उसके स्थायीरूप) से है । शेषचार को शाब्दिक अर्थ है देश, संकल्प और उपचार | उनमें होनेवाले पर्याय संस्पर्शी कहते हैं क्योंकि वे उसके अस्थायीरूप (रूपान्तरो) अभिप्राय को नैगमनय कहते हैं । अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । से सम्बन्धित हैं । इसीलिए ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत संकल्प का भाव है अभिप्राय या उद्देश्य । इसमें जिस उद्देश्य से का पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत वर्गीकरण किया गया है। क्रिया की जा रही है उसीकी प्रधानता दी जाती है | जैसे कोई
इन चारों में से भी केवल ऋजुसूत्र का पर्याय से सम्बन्ध है। ईंधन, जल, चावल आदि ले जाते हुए व्यक्ति से पूछे कि वह क्या
इस सहित प्रथम चार का अर्थ या पदार्थ से सम्बन्ध होने से इन्हें कर रहा है तो वह कहेगा कि मैं खाना पका रहा. हूं । यही दशा
अर्थनय (अर्थतन्त्र) कहते हैं और शेष (अन्तिम) तीन को शब्दनय । लेखक, पाठक आदि की भी हो सकती है । दूसरे रूप में कोई
(शब्दतन्त्र) किसी से पूछे कि आप कहाँ रहते हैं और वह उत्तर दे कि मैं लोक में रहता हूं और उस लोक को संकीर्ण करता हुआ अपने घर तक
ऋजुसूत्र - ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम् । । पहुंच जावे | या कोई कहे कि फल लाओ और वह आम या केला वर्तमानैकसमयविषयं परिगृह्यते ।। या कोई विशिष्ट फल ले आवे |
ऋजुसूत्र का सम्बन्ध पदार्थ के परिवर्तनशीलरूप से रहता है। कुछ आचार्यों के मत में दो धर्मी, दो धर्म अथवा एक धर्म अमुक वस्तु अमुक क्षण जैसी दिखाई देती है उसके तत्कालीन और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा करनेवाला उल्लेख को ऋजुसूत्र नय कहा जाता है। जैसे राजा का अभिनय कथन, नैगममय माना गया है।
करनेवाले नर को हम उस समय राजा ही कहते हैं । ततः प्रविशति संक्षेप में सामान्य व विशेष में कथंचित् तादात्म्य ही नैगम
महाराजः । यही दशा विवाह के समय दूल्हे राजा की होती है। नय का मूलाधार है।
शब्दनय - यह अन्तिम तीन नयों का सामान्य नाम भी है और संग्रहनय -
उनमेंसे प्रथम का विशिष्ट नाम भी है । यहां उसे इसी दूसरे
विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त किया गया है | इसका सम्बन्ध शब्द के सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह इति । नैगमनय में सामान्य
पर्यायों (पर्यायवाची शब्दों) से है । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ व विशष दाना हा आभप्रेत हात है पर सग्रह म केवल सामान्य का इति शब्दः । पर्यावाची शब्द एक दो पदार्थ वाचक है। पर इसस ग्रहण किया जाता है। किसी यात्री द्वारा मार्ग पूछे जाने पर जब
भी अधिक इसका भाव यह है कि जो काल, कारक, लिंग, वचन हम मात्र यह कथन करते हैं कि उस पेड़ के बायें घूम जाना तो
पुरुष और उपसर्ग आदि की भिन्नता के बीच भी शब्द के सामान्य हमारा ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि पेड़ आम का है या नीम
अर्थ को ग्रहण करे । उदाहरण के लिए कुम्भ, कलश, घट मिट्टी से का, यद्यपि पेड़ केवल पेड़ नहीं होता, बड़-पीपल कुछ भी हो
निर्मित एकार्थवाची शब्द हैं । यही दशा इन्द्र, शक्र और पुरन्दर की सकता है। यही दशा सर्वसामान्य सत् के कथन की है। जब हम
है। तीनों ही इन्द्र के वाचक हैं । पर व्युत्पत्ति के आधार पर इन्द्र कहते हैं कि क्या बढ़िया चीज है, घटना है, दृश्य है तब भी हमारा
का अर्थ है इन्दते वर्धत इति इन्द्रः, शक्नोति इति शक्रः, पुरं आशय ऐसे ही सामान्य से होता है।
दारयति इति पुरन्दरः समृद्धि के कारण इन्द्र, समर्थ होने से शक्र व्यवहार नय - इस शब्द को निश्चय नय के विपरीतार्थी और पुर का विदारण करने से पुरन्दर भिन्न भाववाची हैं यही व्यवहारनय के प्रसंग में भी प्रयुक्त किया जाता है, पर यहां वह समभिरूढनय का अभिप्राय है। एक विशिष्ट (तकनीकी) अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है।
जैन सिद्धान्त के अनुसार शब्दारूढोऽर्थोऽर्थारूदः तथैव पुनः विशेषात्मकमेवार्थं व्यवहारश्च मन्यते ।
बिगिया शब्दः । शब्द और अर्थ अन्योन्याश्रित हैं | एक शब्द का एक ही विशेषभिन्नं सामान्यमसरव-विषाणवत् | शा.
अर्थ और एक अर्थ में एक ही शब्द
प्रयुक्त होता है। इसलिए हरेक शब्द जब वस्तु के सामान्य गुणों पर ध्यान न देते हुए विशिष्ट
का अलग-अलग अर्थ है और गुणों का उल्लेख किया जावे या सामान्य जाति के स्थान पर
पर्यायवाची भी इस नियम से बाहर विशिष्ट वर्ग का उपयोग किया जावे, उस अभिप्राय को व्यवहार
नहीं हैं। नय कहते हैं। जैसे कि जब किसी को फल लाने को कहा जावे और वह आम या केला या फल का और कोई प्रकार ले आवे,
या एवंभूतनय - यह नय पूर्ववर्ती जबकि उसे पता है कि आम या केला ही फल नहीं है, ये तो
से एक कदम आगे बढ़ कर बताता उसके प्रकार मात्र हैं।
है कि पर्यायों के निरुक्ति या व्युत्पत्ति
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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उचित मुनाफा ले सदा, रखे राष्ट्र हित-ध्यान । जयन्तसेन मनुज वही, पाता यश वरदान ॥
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