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की भावना है; जीवन में अशान्ति है ।
आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर, उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के प्रति अपनत्व का भाव जगाना है; मनुष्य एवं मनुष्य के बीच आत्मतुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे परस्पर समझदारी, प्रेम, विश्वास पैदा हो सके । मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें आधुनिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं विश्वास का सन्देश प्रदान करना है।
हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिये जो मानव मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं पुरुषार्थ को जागृत कर उसको शान्ति एवं सौहार्द का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो। इसके लिये हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करना होगी, सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना होगा, दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की प्रतिष्ठा करनी होगी, उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोपयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा । धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जो प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच दीवारें खड़ी करके चले धर्म और दर्शन को आधुनिक लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत जीवन मूल्यों स्वतंत्रता, समानता, विश्व बंधुत्व तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी होना चाहिए ।
जैन आत्मानुसंधान का दर्शन
"जैन" साम्प्रदायिक दृष्टि नहीं है। यह सम्प्रदायों से अतीत होने की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बंधन होता है। यह बंधनों से मुक्त होने का मार्ग है। "जैन" शाश्वत जीवन पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को जानकर आत्मानुसंधान की प्रक्रिया है। जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा :
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भगवान महावीर ने कहा- “पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं"
पुरुष तू अपना मित्र स्वयम् है। जैन दर्शन में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता या विकर्ता है । कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित संचालित एवं प्रेरित नहीं करती । आप स्वयम् ही अपने जीवन के ज्ञान से चरित्र से उच्चतम विकास कर सकते हैं। यह एक क्रान्तिकारी विचार है। इसको यदि हम आधुनिक जीवन सन्दर्भों के अनुरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इनसे जुड़ सकते हैं।
भगवान महावीर का दूसरा क्रान्तिकारी एवं वैज्ञानिक विचार यह है कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचरण से महान् बनता है । इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने मनुष्य समाज की समस्त दीवारों को तोड़ फेंका। आज भी मनुष्य और मनुष्य के बीच खड़ी की गयी जितने प्रकार की दीवारें हैं उन सारी दीवारों को तोड़ देने की आवश्यकता है । यदि हम यह मान लेते हैं कि "मनुष्य जन्म से नहीं आचरण से महान् बनता है" तो समाज की समता एवं
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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शांति में जो जातिगत एवं वर्गगत जहर घुला हुआ है, उसको हम दूर कर सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा बन सकता है :
प्रत्येक व्यक्ति साधना के आधार पर इतना विकास कर सकता है कि इस स्थिति में पहुंचे हुए आदमी को देवता लोग भी नमस्कार करते हैं। 'देवावित्तं नर्मसन्ति जस्स थम्म समायणो ।" महावीर ने ईश्वर की परिकल्पना नहीं की देवताओं के आगे झुकने की बात नहीं की अपितु मानवीय महिमा का जोरदार समर्थन करते हुए कहा कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । व्यक्ति अपनी ही जीवन-साधना के द्वारा इतना उच्चस्तरीय विकास कर सकता है। कि आत्मा ही परमात्मा बन सकती है।
जैन तीर्थंकरों का इतिहास एवं उनका जीवन आकाश से पृथ्वी पर उतरने का क्रम नहीं अपितु पृथ्वी से ही आकाश की ओर जाने का उपक्रम है । नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है अपितु नर का ही नारायण बनना है । वे अवतारवादी परम्परा के पोषक नहीं अपितु उत्तारवादी परम्परा के तीर्थंकर थे । उन्होंने अपने जीवन की साधना के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रमाण दिया; उसे यह विश्वास दिलाया कि यदि वह साधना कर सके, राग-द्वेष को छोड़ सके तो कोई ऐसा कारण नहीं है कि वह प्रगति न कर सके । जब प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है, अपने ज्ञान और साधना के बल पर उच्चतम विकास कर सकता है और तत्वतः कोई किसी की प्रगति में न तो बाधक है और न साधक तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहां होता है ? इस तरह उन्होंने एक सामाजिक दर्शन दिया।
प्रत्येक जीवन में आत्म शक्ति :
सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है । इस परम्परा में मानव को 'मानव' के रूप में देखा गया है; वर्णों सम्प्रदायों, जाति, उपजाति, वादों का लेबिल चिपकाकर मानव मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अप्रतिम है । भगवान महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता की प्रजातंत्रात्मक उद्घोषणा की। उन्होंने कहा कि समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
इसके साथ-साथ उन्होंने यह बात कही कि स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं । अस्तित्व की दृष्टि से समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं; भिन्न-भिन्न हैं किन्तु स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं। मनुष्य मात्र में आत्मशक्ति है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है । जीव अपने ही कारण से संसारी बना है। और अपने ही कारण से मुक्त होगा । व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु
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अजर अमर रहना नहीं, चार दिनों का वास । जयन्तसेन सिध्दि मिले, रखो अरिहन्त आश || www.jainelibrary.org.