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आकाश में परिमाण की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है उसी प्रकार सर्वज्ञ में ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है।' अतीन्द्रिय पदार्थ ज्ञाता, द्रष्टा सर्वज्ञ:
तथा स्वभाव से दूर परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ देश से दूर सुमेरु पर्वत आदि और काल से दूर राम, रावण आदि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमेय होने से । जो अनुमेय होते है, वे किसी के प्रत्यक्ष होते है । जैसे पर्वत की गुफा की अग्नि अनमान का विषय होने से किसी न किसी के प्रत्यक्ष होती है वैसे ही हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के बाह्य परमाणु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होने चाहिए । अतः जिसे ये समस्त अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं, वही सर्वज्ञ है।
यदि यह न मानें कि अतीन्द्रिय पदार्थों का कोई ज्ञाता नहीं है तब यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सकता तो सूर्य चन्द्र इत्यादि ज्योतिग्रहों का उपदेश भी कैसे
सत्य कहा जा सकेगा । ज्योतिर्ज्ञान उपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है, और उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ के विना नहीं हो सकता । अतएव सर्वज्ञ की सिद्धि निश्चित होती है ।
इस प्रकार जैन आचार्यों का अभिमत है वि सर्वज्ञत्व की सिद्धि में कोई बाधक प्रमाण नहीं है और सर्वज्ञ सिद्ध है। यह सर्वज्ञ सब कुछ जानता है, राग आदि दोषों से पूर्ण मुक्त है, तीनों लोको में पूजित और वस्तुएं जैसी हैं उन्हें उसी प्रकार से प्रतिपादित करता है । वही परमेश्वर अरहंत हैं। सर्वज्ञ है । कुन्दकुन्दाचार्य नियमसार में कहते हैं कि यह सर्वज्ञ व्यवहारनय से ही समस्त पदार्थों को जानता है किन्तु निश्चय नय से तो वह केवल अपनी आत्मामात्र को ही जानता है । इसी कारण आप्तमीमांसा, अष्टशती', अष्टसहस्त्री, आप्तपरीक्षा, प्रमेयकमलमार्तण्ड', न्यायकुमुदचन्द्र", न्यायविनिश्चय१२ विवरणप्रभृति जैन सिद्धान्तग्रंथों में सर्वज्ञत्व की पर्ण सिद्धि की गयी है।
ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विक्रान्तम्, तारतम्यत्वात्, आकाशे परिणाम तारतम्यवत्। तथा मिलाइए :प्रज्ञाया अतिशय:- तारतम्यं क्वचिद्विक्रान्तम, अतिशयत्वात्, परिमाणातिशयवदित्यनूमानेन निरतिशयप्रज्ञासिद्ध्या तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धिः । -प्रमाणमीमांसा, पृ. १२. म तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, क्षितिधरकन्दराधिकरण धूमध्वजवत् । स्याद्वादमंजरी, पृ. १७६ तथा देखिएसूक्ष्मान्तरित दूराः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनु मे यत्वात्, क्षितिधरकन्दराधिसूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा, प्रमेयत्वात् घटवदित्यतो।
- प्रमाणमीमांसा, पृ. १२ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति ।। आप्तमीमांसा कारिका ५ एवं चन्द्रसूर्योपरागादि सूचकज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्ति प्रभृतयोऽपि हेतवो वाच्याः । स्याद्वादमंजरी, पृ. १७६ ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तेश्च तत्सिद्धिः । प्रमाण मीमांसा, पृ. १२ यदाह धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत् पुंसां कुतः पुनः । ज्योति नाविसंवादः कृताश्चेत् साधनान्तरम् ।। सिद्धिविनिश्चय, पृ. ४१३ तथा न्याय विनिश्चय श्लो. ४१४
बाधकाभावाच्च । प्रमाणमीमांसा १/१/१७ कश्चित्पुमानशेषज्ञः प्रमाणाबाधितत्त्वतः । न चासिद्धमिदं तावत्कस्यचिद् बाधकात्ययात् ।।
सिद्धान्तसंग्रह ४/८८ अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवाद्बाधक प्रमाणत्वात् मुखादिवत् ।
समान सिद्धि विनिश्चयटीका, पृ. ४२१ सर्वज्ञो जितसंगादिदोष त्रैलोक्यपूजितः यथा स्थितार्थवादो च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। योगशास्त्र २/४ जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणएणं केवली भगवं । केवलणाणी जाणादि पस्यदि णिपमेण अप्पाणं ।। नियमसार गा. १५८ दे. आप्तमीमांसा, पृ. ६-८ दे. ये दोनों आत्ममीमांसा के टीकाग्रंथ है।
दे. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. २४७-२६६ ११ दे. न्याय कुमुदचन्द, पृ. ८६-९७ १२ दे. न्यायविनिश्चय विवरण, पृ. २८६
मधुकर-मौक्तिक
यदि आपसे कोई पूछे कि आप कौन हैं - जीव या शरीर ? तो आप क्या जवाब देंगे ? क्या आपको, स्वयं को जीव होने का पूरा भरोसा है ? जिसको अपने जीवत्व' पर विश्वास हो जाता है, उसका जीवन हमेशा के लिए निर्मल बन जाता है | उसके जीवन में किसी प्रकार का उतार-चढ़ाव या भेदभाव निर्मित नहीं होता । वह इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं करता। अपना अपने शरीर के साथ संयोग-सम्बन्ध है | शरीर आखिर छूटने वाला है | देहातीत होने की कला यदि आपने जान ली. तो समझ लीजिये कि आपने जीव को समझ लिया है । जिसने भेद-विज्ञान को नहीं जाना, उसने जीव को भी नहीं जाना । जैसे तलवार म्यान में रहती है; पर स्थान और तलवार एक रूप नहीं है, उसी प्रकार जीव शरीर में रहते हुए भी जीव और शरीर एक रूप नहीं है । दोनों जुदा हैं। इसलिए हम शरीर नहीं, पर शरीरधारी जीव अवश्य है।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर'
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International
जाहिल जालिम जाल्मक, जीभ न वश में जास ।
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